राजनाँद गाँव
30 अक्टूबर
प्रिय मलयजी
आपका पत्र यथासमय मिल गया था। पत्रों द्वारा आपके काव्य का विवेचन करना सम्भव होते हुए भी मेरे लिए स्वाभाविक नहीं था इसलिए कि साक्षात् व्यक्तिगत परिचय के ठोस आधार से रहित होने की स्थिति में मेरी बातें शायद सही ढंग से न ली जातीं या मैं शायद सही ढंग से उन्हें पहुँचा ही न पाता, वग़ैरह वग़ैरह ख़तरे रहते हैं। उम्र ज्यों ज्यों बढ़ती जाती है, सफ़ेद होती है, त्यों त्यों ख़तरों से डरती है।
झूठा प्रोत्साहन मैं नहीं देता। आप विनोद से पूछ सकते हैं कि नये लेखक को कविता लिखने से रोकनेवाली मेरी सलाह होती है। पता नहीं विनोद ने उसे कैसे झेल लिया।
आपकी कविता उलझी परिस्थितियों की ओर या उसके भीतर पायी जानवाली ग्रंथिल मनस्थितियों की कविता है—इसीलिए शायद उसमें से उलझाव हटाना होगा। जैसे साफ़ सड़क होती है, वैसी ही वह हो। चक्करदार गलियों में चलने वाले को भी चक्कर नहीं आने चाहिए और मकान मिल जाना चाहिए।
मतलब यह कि आपकी कविताएँ जो मैंने पढ़ीं, श्रेष्ठ सम्भावनाओं की द्योतक हैं, किन्तु शिल्प असावधान है। आप बुरा न मानेंगे। प्रत्येक लेखक को अपने-अपने शिल्प का विकास करना होता है, इसे आप स्वयं भी समझते हैं।
शेष बातें जब कभी मिलेंगे, तब होंगी।
आपका
ग मा मुक्तिबोध
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साभार: किताब: मुक्तिबोध रचनावली, भाग-6 | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
मुक्तिबोध का पत्र शमशेर बहादुर सिंह के नाम