भोपाल,
15 जनवरी, 1951

अख़्तर मेरे,

पिछले हफ़्ते तुम्हारे तीन ख़त मिले, और शनीचर को मनीआर्डर भी वसूल हुआ। तुमने तो पूरी तनख़्वाह ही मुझे भेज दी… तुम्हें शायद तंगी में बसर करने में मज़ा आने लगा है। यह तो कोई बात न हुई दोस्त! घर से दूर रहकर वैसे ही कौन-सी आसाइश तुम्हारे हिस्से की रह जाती है जो महनत करके जेब भी ख़ाली रहे? ख़ैर! मेरे पास वो पैसे भी, जो तुमने बम्बई से रवानगी के वक़्त दिए थे, जमा हैं, और ये भी। अब मैं तुमसे अलग रहकर पैसे की काफ़ी हिफ़ाज़त करना सीख गयी हूँ।

परसो कॉलेज में मुशायरा था। अख़्तर सईद और ताज भी आए थे। मुलाक़ात हुई थी। ताज ने घर पर आने को भी कहा था। शायद बीस की वापिसी का इरादा रखते हैं। बन पड़ा तो कुछ उनकी मार्फ़त भेज ही दूँगी।

कल शहाब की माँ, उनकी बीवी और नौशा साहब की बीवी आ गई थीं। आज तन्हाई है। अदीस को नज़ला हो रहा है। उसकी तीमारदारी में लगी हूँ। इसने भी तुमको ख़त लिखवाया है।

अच्छा अख़्तर! अब कब तुम्हारी मुस्कराहट की दमक मेरे चेहरे पर आ सकेगी। बाज़ लम्हों में तो अपनी बाँहें तुम्हारे गिर्द हल्का करके तुमसे इस तरह चिमट जाने की ख़्वाहिश होती है कि तुम चाहो भी तो मुझे छुटा न सको। तुम्हारी एक निगाह मेरी ज़िन्दगी में उजाला कर देती है। सोचो तो कितनी तारीक और बदहाल थी मेरी ज़िन्दगी जब तुमने उसे सम्भाला। कितनी बजर और कैसी बेमानी और तल्ख़ थी मेरी ज़िन्दगी जब तुम मेरी दुनिया में दाख़िल हुए। और मुझे उन गुज़रे हुए दिनों पर ग़म होता है, जो हम दोनों ने अलीगढ़ में एक दूसरे की शिरकत से महरूम रहकर गुज़र दिए। अख़्तर! मुझे आईन्दा की बातें मालूम हो सकतीं तो सच जानो मैं तुम्हें उसी ज़माने में बहुत चाहती। कोई कशिश तो शुरु से ही तुम्हारी जानिब खींचती थी और कोई घुलावट ख़ुद-ब-ख़ुद मेरे दिल में पैदा थी, मगर बताने वाला कौन था, कि यह सब क्यों?

आओ! मैं तुम्हारे सीने पर सिर रखकर दुनिया को मग़रूर नज़रों से देख सकूँगी।

तुम्हारी अपनी
—सफ़िया

पोषम पा
सहज हिन्दी, नहीं महज़ हिन्दी...