आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें
और फिर मानना पड़ता है ख़ुदा है मुझमें
अब तो ले दे के वही शख़्स बचा है मुझमें
मुझको मुझसे जो जुदा करके छुपा है मुझमें
जितने मौसम हैं सभी जैसे कहीं मिल जाएँ
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझमें
आइना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन
आइना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझमें
अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ ‘नूर’
मैं कहाँ तक करूँ साबित कि वफ़ा है मुझमें!
कृष्ण बिहारी नूर की ग़ज़ल 'ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं'