ज़रा ध्यान से
नीचे कोई सो रहा है
एक पूरा आदमी
हमारी ही तरह
चलता था
इसी धरती पर
पूरा का पूरा नीचे।
गीत गाता वह
इमारतें बनायीं
बस चलायी
दावतें दीं
दूल्हा बना
कुर्सी छीनी
नहीं बैठा जिस पर
सोया उसी के नीचे।
चाँदनी के फूल
चहकती फ़ाख़्ता
नाचते मोर
टाइल जड़े किसी पर
चारों ओर जाली
मरमर का तकिया
स्मृति का दूह
खण्डहर कुछ
जीवन-भर भूखा रहा
भरा-पूरा कैसे हो अंत!
सड़क पर पाँचतारा
आकाशभेदी मंज़िलें
दफ़्तर, कारख़ाने
भीड़भाड़
रौनक़ मेला
रेलमपेल
सत्य है क्या?
झूठ था क़ब्रिस्तान?
मृत्यु और सड़क ने
चाँप लिया जीवन
दोनों के बीच फ़ुटपाथ पर मैं
पीछे कोई रौंद रहा है
आगे जीवन दौड़ रहा है।
इब्बार रब्बी की कविता 'दिल्ली की बसों में'