शहर में कालोनी
कालोनी में पार्क,
पार्क के कोने पर
सड़क के किनारे
जूती गाँठता है रैदास
पास में बैठा है उसका
आठ वर्ष का बेटा पूसन
फटे-पुराने कपड़ों में लिपटा
उसके कुल का भूषण,
चाहता है वह खूब पढ़ना
और पढ़-लिखकर आगे बढ़ना
लेकिन,
लील रही हैं उसे
दारिद्रय और दीनता,
घर करती जा रही है
उसके अन्दर हीनता
यूँ उसका नाम
सरकारी स्कूल में दर्ज है
लेकिन, वहाँ का भी
क्या कम खर्च है
कभी किताब, कभी कापी, और
कभी कपड़ों के अभाव में
नहीं जा पाता है पूसन प्रायः स्कूल
और आ बैठता है यहाँ
अपने पिता के पास
टाट की छांव में
यहीं पर आकर रुकती हैं
कई पब्लिक स्कूलों की बसें, और
उनमें से उतरते हैं
तरह-तरह की पोशाकों में सजे-धजे
कंधों पर ‘बैग’ और हाथों में
‘वाटर-बॉटल’ लटकाए
कालोनी के
संभ्रान्त परिवारों के बच्चे
जिन्दगी की सच्चाई से बेखबर पूसन
मायूसी और दीनता से
अंगरेजी में किटर-पिटर करते
इन बच्चों को देखता है
और रैदास से पूछता है
“पिताजी! क्यों नहीं बनाते तुम भी
मेरे लिए
इनके जैसे कपड़े,
क्यों नहीं भेजते मुझको भी
इनके ही जैसे स्कूल?”
सुनकर चुप रह जाता है रैदास
लेकिन हिल जाती हैं
उसके मस्तिष्क की चूल
छलनी कर देते हैं कलेजे को
लाचारी और बेबसी के शूल
उसकी आंखों में भर आता है पानी,
चुप्पी कहती है उसके
अभाव और उत्पीड़न की कहानी
उसके अन्तर में उठती है
एक टीस,
विकल कर देती है वेदना
विक्षिप्त होने लगती है
उसकी सारी चेतना
किंकर्तव्यविमूढ़ वह
कभी हंसते-खिलखिलाते और
कीमती कपड़ों में चमचमाते
इन सामंती बच्चों को
और कभी, अपने पास बैठे
चमड़े के टुकड़े,
पॉलिस की डिबिया और
ब्रुशों को उलटते-पुलटते
अपने नंगे-अर्धनंगे बेटे को देखता है
विवशता से व्याकुल हो
अपने मन को मसोसता है
अपनी भूख और बेबसी को
कोसता है, और
ईर्ष्या, ग्लानि और क्षोभ से भरकर
व्यवस्था के जूते में
आक्रोश की कील
ठोंक देता है।

जयप्रकाश 'कर्दम'
जयप्रकाश कर्दम एक हिन्दी साहित्यकार हैं। वह दलित साहित्य से जुड़े हैं। कविता, कहानी और उपन्यास लिखने के अलावा दलित समाज की वस्तुगत सच्चाइयों को सामने लानेवाली अनेक निबंध व शोध पुस्तकों की रचना व संपादन भी उन्होंने किया है।