कल मेरे प्राणों में कोई रो रहा था। बाहर सब शान्त था। भीतर-भीतर भारी व्यथा भर गई थी। जी बड़ा उदास था। कौन-सी हवा थी वह जो अपनी लहरों से घेर-घेरकर मुझको बाँध गई।
किसका दुःख यह मेरे मन में आकर ठहरा। किसने गुमनाम पत्र यह अपना भेजा है। मैंने जो पाया है उसको कैसे अपने अन्दर के कोने में मौन पड़ा रहने दूँ? अगर किसी राही को काँटा गड़ जाता है तो क्या वह काँटे को लिए-दिए उसी तरह चलता है? मैं इसका क्या करूँ?
मैं बिल्कुल स्वस्थ हूँ। तन-मन में मेरे कोई कम्पन नहीं है और कल के उस क्षण तक मैं बहुत प्रसन्न था। अब जी को चैन नहीं। आख़िर किसने अपना प्राण-भरा अवसाद मेरे मन के मन में भर दिया?
किसी की प्रतीक्षा मुझे नहीं थी। अपना कोई अभाव मुझ पर नहीं हावी था। मैं था निश्चिन्त; कहूँ चिन्ता की चिन्ता से बिल्कुल अनजान था। लेकिन अनजाना अवसाद किसी का उड़कर मेरे उर की कोमल टहनी पर आ बैठा।
दुनिया के किसी छोर पर रहने वाले ओ जीवधारी, तुम कुछ हो, कोई हो, कोई भी प्राणी हो, स्थलचर, जलचर, नभचर कोई भी—अपनी अनजानी सम्वेदनाएँ भेजकर तुमने उपकार किया। मैं इन आवर्तों में बँधा हुआ आज कहाँ हूँ, अपने लोगों का हूँ, अपनी दुनिया का हूँ। आज मैं तुम्हारा हूँ। बिल्कुल तुम्हारा हूँ, केवल तुम्हारा हूँ, कहीं रहो, कोई हो।
त्रिलोचन की कविता 'हम दोनों हैं दुःखी'