आज सुबह ही
मिट्टी खोदी
घास उखाड़ी
पानी डाला
सुबह-सुबह की धूप देखकर
सही जगह पर क़लम लगायी
खीझ रहा था कई दिनों से
मन के भीतर
इस जीवन पर
अस्थिर होकर घूम रहा था कमरे-कमरे
क़लम लगाकर लेकिन सहसा ठहर गया मैं
लगा देखने
भीगा पौधा
धूप देखता
मिट्टी देखी
पानी देखा
खड़ा रहा मैं मुग्ध देर तक
कब फूटेंगे इसमें पत्ते
रहा सोचता रुका हुआ मैं
सुबह-सुबह मैंने मिट्टी में
जीवन बोया
खुशियाँ बोयीं
सपना बोया
सुबह-सुबह सींचा था
मैंने
अपने मन को!
सिद्धार्थ बाजपेयी की कविता 'सुना तुम मर गए, गई रात'