‘Aakhiri Gaon’, a poem by Rahul Meena

किसी ने पूछा मुझसे
कि मानव का सफ़र कितना है
मैंने जवाब दिया-
शून्य से शुरू होकर शून्य में समाहित हो जाना।
दुबारा उसने पूछा
कि गाँव का सफ़र कितना है
मैंने कहा-
गाँव का सफ़र अनन्त से शून्य तक है।
(तब आख़िरी गाँव बचा था)

जब आख़िरी गाँव बचेगा
तो उसके अस्तित्वहीन होने से पहले ही
मैं अथाई पर बैठकर
सुनना चाहूँगा बुज़ुर्गों की बातें,
जाना चाहूँगा दोस्तों के साथ
मवेशियों को चराने कहीं दूर चारागाह में,
खेलना चाहूँगा
गाँव के सभी खेलों को
कंची, गिल्ली-डण्डा, डण्डे से टायर चलाना, छुपन-छुपाई,
पढ़ना चाहूँगा
सरकारी स्कूल में माड़साब के यहाँ,
काम करना चाहूँगा
अपने खेतों में सुबह से शाम तक,
सीखना चाहूँगा
माँ से रोटी बनाना, पिता से किसानी करना,
मिलना चाहूँगा
उन महिलाओं से जिनके पति शहर गए हैं काम करने,
बतियाऊँगा उन रास्तों से
जिनसे वादा करके गए थे कुछ लोग शहर,
वे रास्ते अभी भी प्रतीक्षारत हैं
कि उनके वादे की ख़ातिर एक दिन
वो सभी लोग लौट आएँगे
जो शहर में मज़दूरी करने गये थे।

जब आख़िरी गाँव बचेगा तो
दुनिया-भर के लोग उसे देखने आएँगे,
गाँव विरोधी सरकार भी
चला देगी कोई सरंक्षण योजना,
सरकार के इस दिवालियापन को मैं पहचानता हूँ
गाँव के भोले-भाले लोगों को
ठगने का काम इस सरकार ने ही किया।

आख़िरी गाँव ख़त्म होने के साथ ही
ख़त्म हो जाएँगे किसान
पोखर
खेत
एक महान संस्कृति, सभ्यता भी
जिसे संजोकर न रख सके
शहर और शहरी लोग,
तथापि वो भी कभी
गाँव और ग्रामीण ही थे।

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