फ़िल्म रिव्यु: आँखों देखी
“बस यही सपना मुझे बार बार आता है
कि मैं उड़ रहा हूँ
आकाश में
पंछी की तरह
गगन को चीरता मैं चला जा रहा हूँ, चला जा रहा हूँ
ये हवा जो मेरे चेहरे को चूम रही है
ये सांय सांय की आवाज़ मेरे कानों में
यही यथार्थ है”
इन शब्दों के साथ शुरू होती है ‘आँखों देखी’ की वो कहानी जो एक बेतरतीब निर्णय की बग्घी पर सवार है। अस्तित्ववाद (existentialism) की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर दौड़ती है और एक और बेतरतीब निर्णय से टकराकर थम जाती है।
कहानी है पुरानी दिल्ली की एक गली में रहने वाले मिडिल क्लास परिवार की जिसकी सोच, रहन सहन, किरदार, सब मिडिलक्लासियत की मिसाल हैं। घर के मुखिया हैं बाउजी (संजय मिश्रा)। बाउजी का परिवार इकट्ठा हुआ है अपनी बेटी रीता (माया सराओ) के अफेयर की खबर का मातम मनाने। खबर जो मिडिल क्लास ट्रेडिशन के अनुसार एक पड़ोसी से प्राप्त हुई है।
चाचाओं के जिम्मे होती है घर की अस्मिता की रक्षा इसलिए चाचा (रजत कपूर) बौखलाए हुए हैं। माँ (सीमा भार्गव) इमोशनल डायलॉग मार रही हैं। (जैसे- लड़की के यही लच्छन रहे ना तो देख लेना एक दिन मैं पंखे से लटककर अपनी जान दे दूंगी) और बाप मुँह लटकाए बैठा है, जैसा कि लड़की के बाप का फ़र्ज़ होता है। मिडिल क्लास भारतीय परिवार में ‘डिवीज़न ऑफ लेबर’ प्रायः यही रहता है।
खैर, दबे स्वर योजना बनाई जाती है कि लड़की के आशिक़ को घर जाके धमकाया जाए। लड़के को दो चार हाथ लगाए जाते हैं मगर न वो लड़की के लिए कुछ बोलता है, न अपने लिए। चाचा, भाई, पड़ोसी, जो लड़ाई की योजना से आए थे, सब निराश।
बाउजी घोषित करते हैं कि लड़का तो गऊ है। अब एक लड़के के लिए यह संबोधन लड़के का अपमान है या गाय का यह सोचने वाली बात है।
लेकिन इस बात से बाउजी के मन में एक और बात बैठ जाती है। वह यह कि यूँ ही किसी का कहा कैसे मान लिया गया था। बाउजी के भीतर होती है घमासान। और अगली ही सुबह परिवार को निर्णय सुनाया दिया जाता है कि अब से अनुभूति का सच ही अपना सच है।
मध्यवर्गीय, पचपन वर्षीय, एक बेटी के बाप द्वारा ऐसा चिंतन एक अनोखी/अनदेखी बात है मगर इसके चलते सीन ज़बरदस्त बन पड़े हैं-
“पानी गरम है, नहा लो”
“ह्म्म्म पानी गरम है (पानी में उंगली डालते हुए)। ये तो है”
या फिर ये सीन-
बाउजी बाहर जाने के लिए तैयार होते हुए-
“मैंने फैसला कर लिया है। मेरा सच मेरे अनुभव का सच होगा। आज से मैं हर उस बात को मानने से इनकार कर दूँगा जो मैंने खुद देखा या सुना न हो। हर बात पे सवाल करूँगा। हर चीज़ को दोबारा देखूँगा, सुनूँगा, जानूँगा, अपनी नज़र के तराज़ू से तोलूँगा। कोई भी ऐसी चीज़ जिसको मैंने जिया न हो, उसको अपने मुँह से नहीं निकालूँगा। जो कुछ भी गलत मुझे सिखाया गया है या गलत तरीके से सिखाया गया है, वो सब भुला दूँगा। एकदम। टोटल।”
“मैं ये…”
“एक मिनट, अभी मैं बोल रहा हूँ ना। अब सब कुछ नया होगा। नए सिरे से होगा। सच्चा होगा…”
“अरे ये”
“बात करने दोगी मुझे? सच्चा होगा, अच्छा होगा। सब कुछ नया होगा। जो देखूंगा उस पर ही विश्वास करूँगा। हाँ तो पुष्पा क्या कह रही थीं तुम?”
“हेहेहे! मैं ये बोल रही थी कि ज्ञान बाद में बघार लेना, पैले पैंट तो पेहेल्लो।”
और इसी के साथ बाउजी का नया सफर शुरू हो जाता है। शुरुआत होती है पंडित जी के बाउजी को प्रसाद देने से। वे प्रसाद चखते हैं, एक घड़ी रुकते हैं, और फिर कहते हैं – “मिठाई है.. कलाकंद था.. बढ़िया था.. स्वादिष्ट था, मीठा था” और आगे चल देते हैं। स्ट्रीट लाइट पर एक गिलहरी फुदकती है और कैलाश खेर का स्वर कानों में पड़ता है-
“हाथ लागी-लागी नई धूप
आज लागी-लागी नई धूप
कि दिखे धुली साफ मन की चदरिया
बिना दाग़ सारी डगरिया
दसों दिशा आज सावरिया, लिए नया रूप..”
वरुण ग्रोवर के बोल सिचुएशन पर फिट हैं और रेसुल पूकुट्टी का संगीत सुबह की हल्की हवा जैसा। दिल्ली की गलियों के दृश्य लुभावने हैं। आगे चलते हैं-
बाउजी पूजा करना छोड़ चुके हैं। उन्हें आभास होता है कि ऑफिस बॉय सत्या बहुत खूबसूरत है। यहाँ तक कि अपनी नौकरी भी छोड़ देते हैं क्योंकि उन्हें कुछ ऐसा नहीं कहना जो उन्होंने भोगा नहीं। एक बेहद रोचक सीक्वेंस में बाउजी एक मैथ टीचर से उलझ जाते हैं कि दो समानांतर रेखाएं इंफिनिटी पर कैसे मिलती हैं! अगर इंफिनिटी पर मिलने का अर्थ ‘कभी नहीं मिलना’ है तो ऐसा कैसे कह दिया जाता है कि वे इंफिनिटी पर मिलेंगी। ये कुछ कुछ शून्य के अस्तित्व जैसा है। शून्य माने ‘कुछ नहीं’। जो ‘कुछ नहीं’ है वह नंबर लाइन पर -1 और 1 के बीच दूरी कैसे बना सकता है? उसे जानने का क्या औचित्य? वो तो कुछ है ही नहीं। शून्य।
भारतीय परिवार ‘दर्शन’ नहीं जानते। उन्हें बाउजी के इस व्यवहार में दिखता है विनोद, आश्चर्य और ‘मेल मेनोपॉज़’।
‘झूम झूम जाए मोरा आज कण कण…’
बाउजी की अनोखी बातें सुनने को पड़ोस के नाकारा लड़कों का हुजूम लगा रहता है। पैसे की तंगी हो गयी है। बाउजी जुआ खेलने लगे हैं (जुआ अस्तित्ववाद को खतरा तो पैदा करता नहीं)। परिवार में लड़ाइयाँ बढ़ जाती हैं और दोनों भाई अलग हो जाते हैं। बाउजी निराश हैं। तबियत भी बिगड़ जाती है। उन्होंने मिडिल क्लास के सिद्धांत को तोड़ा है। कभी न रुकने का सिद्धांत। वो रुककर सोचने लगे हैं। सोचने का अधिकार सबका नहीं है। यह पूंजीवाद से ग्रसित है।
इसी बीच एक मोनोलॉग है जहाँ बाउजी का भांजा जिसे आम लोग ‘पागल’ कहेंगे, एक जगह टकटकी लगाए बिना रुके बोलता चला जा रहा है। किसी को बीमारी नहीं पता। शिरीन-फरहाद से लेकर ओबामा, जीवन चक्र, दिन-रात तक की तमाम बातें। जहाँ बाकी लोग उसके इस व्यवहार पर विलाप कर रहे हैं, वहीं बाउजी लड़के का हाथ थामे बैठते हैं और पूरे ध्यान से उसकी एक-एक बात सुनते हैं। यकायक लड़का चुप हो जाता है।
सोचने वालों को सुने जाने की ज़रूरत है। बाउजी की हालत भी लड़के जैसी है। यूँ आसपास के लड़कों की नज़र में अब वो संत हो चुके हैं, पर सुन उन्हें भी कोई नहीं रहा। यह सीक्वेंस पिक्चर की हाईलाइट है।
“याद सारी बारी बारी छने रे छने
हारी- जीती शर्तों से
मौसमों की परतों से
रास्तों से, फासलों से बने रे बने”
कथानक और सभी किरदारों का अभिनय इतना मजबूत है कि बीच में इन गीतों की आवश्यकता नहीं है, मगर गीत भी ऐसे बन पड़े हैं जैसे नई छनी मीठी, कुरकुरी जलेबियाँ।
बाउजी निश्चय करते हैं कि बेटी की शादी उसके प्रेमी से ही कर दी जाए। जिस लड़के को पहले सीन में पीटा गया था, अब उसकी देखने लायक खातिरदारी हो रही है। अब वह दामाद है, यानि देवता-तुल्य। शादी की हलचल में बाउजी अपने भाई से भरत-मिलाप भी कर लेते हैं। जीवन का जाल गांठ दर गांठ खुल रहा है। बीवी, जिसे भूल जाना भी मिडिल क्लास घर का उसूल है, उसको तक घुमाने सुंदर पर्वतीय स्थल ले जाया जाता है। प्यार भरी बातें की जाती हैं।
अब बाउजी एक विशाल पर्वत के छोर पर खड़े हैं। सारी गांठें खुल चुकी हैं। जाल टूट गया है। बैकग्राउंड में दिल की धड़कन तेज़ करता सितार का स्वर है। और बाउजी पर्वत से छलांग लगा देते हैं। आरम्भ अब अंत बन चुका है।
“ये हवा जो मेरे चेहरे को चूम रही है,
यह सांय-सांय की आवाज़ जो मेरे कानों में पड़ रही है,
ये यथार्थ है, सच
मैं वाकई गगन को चीरता चला जा रहा हूँ, चला जा रहा हूँ
जैसे मक्खन में गरम छुरी
ये सपना नहीं
मैं उड़ रहा हूँ…”
आँखों देखी एक अभूतपूर्व फ़िल्म है। अभूतपूर्व साहित्य का हिस्सा। मगर यह मेरा सच है। आप अपना सच फ़िल्म देखकर ढूँढिए।
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