आधी रात
कूलर और पंखों के शोर के बीच
अचानक मुझे कुछ आवाज़ें सुनायी देने लगती हैं
चीखों की, झगड़ों की
सपने में डरे हुए व्यक्ति की
उठकर देखता हूँ तो आवाज़ों की आहट तक नहीं
घूमता हूँ घर भर, ढूँढता हूँ हर जगह
कहीं कुछ नहीं मिलता
जो किसी प्रतिध्वनि की प्रतीक्षा में हो
लॉबी में होती है रौशनी की एक सीधी नागफनी रेखा
जो रोशनदान से मेरे कमरे के दरवाज़े तक आते-आते
अंधेरे में बदल जाती है
कमरों में पसरी होती है शान्ति और ठण्डक
और बिस्तरों पर वह नींद
जो सोने वालों से ज़्यादा, उन्हें देखने वालों को सुकून देती है
बालकनी में बह रही होती है हवा, दबे पाँव
चौकीदार, कुत्ते, झींगुर
सब होते हैं दृश्य से बाहर
मैं वापिस आकर लेट जाता हूँ अपने कमरे में
आँखें मूँदकर
और सहलाने लगता हूँ उसका सिर
जो चीखा था मेरे भीतर
यह देखने के लिए कि कितना चौकन्ना हूँ मैं
उन आवाज़ों के प्रति
जिन्हें मुझे किसी भी शोर के बीच सुन लेना चाहिए।