मैंने देखा
कहीं दूर से आवाज़ों को
आते
कहीं दूर तक जाते

मैंने देखा
वो एक तरफ़ से आतीं
एक तरफ़ को जातीं

उनका आना जाना
तब भी चलता
जब रुक जायें हवाएँ
या सूरज ढल जाए
कोई ढक ले कानों को
या कर ले बन्द मकानों को

फिर सोचा मैंने
आवाज़ें बाहर नहीं, शायद
अन्दर है कहीं
और हमें कानों को नहीं
बल्कि ढकना होगा
अपने अन्दरख़ानों को!

यह भी पढ़ें:

पुनीत कुसुम की कविता ‘आवाज़ें’
मोहनदास नैमिशराय की कहानी ‘आवाज़ें’