अकारण तो नहीं
साउद्देश्य ही था
व्यवस्था के पन्नों पर
कुछ लिखित, कुछ अलिखित
प्रथम-दृष्टया तो अबूझ रहा
चेतना के उत्तरोत्तर क्रम
के बाद जाना कि
उछाले गए सिक्के के चित और पट
दोनों तुम्हारे पाले में ही थे
काले दरवाज़ों के भीतर
गुलाबी पाँव रखतीं स्त्रियों को
भर अँकवार अपनाया गया
परम्परानुगामी होकर
मैंने भी अपने पाँवों को गुलाबी रंग लिया
तुमने भरी सभा में
अपनी सफलता का श्रेय
मेरी तरफ़ बढ़ा दिया—
ये कहते हुए सभा लूट ली
एक उदार पुरुष के रूप में
और सगर्व
अपनी पीठ थपथपवायी
उस लहालोट प्रदर्शन में फिर
मेरे किए का मोल ज़मीन पर औंधे मुँह आ गिरा
मैं और अधिक स्त्री होने के अभ्यास में
निरंतर प्रयासरत रही
ये उतनी बड़ी बात भी नहीं थी
पर इस ज़रा-सी बात ने
ताउम्र जीने न दिया
थकान से नहीं
दुःख से थक जाता है हर कोई
मन को धूप न दिखाओ तो शरीर की तरह
मन का द्रव्य भी सूख जाता है
चटकने लगते हैं
मन के हर जोड़
और मन के चिकित्सक को दिखाना
भली स्त्रियों के लिए अब भी अप्रासंगिक है
मैं परम्परा सलिला में
अपने हिस्से के सबसे सुंदर पुष्प सिराती हुई
अब भी प्रतीक्षा में हूँ
कि गुलाबी एड़ी में
कोई तो ऐसी फाँस चुभे
कि लाल रक्त भलभलाकर फूट पड़े
लाल अब भी क्रांति का प्रतीक माना जाता है
बस प्रतीक्षा उस यथोचित समय के अभीष्ट की है!
शालिनी सिंह की कविता 'हठी लड़कियाँ'