ठहरो अभी तुम्हारे मरने का वक़्त नहीं आया है
गले में फँसी हुई रस्सी को खोल दो
देखो, अभी भी खिड़की के बाहर
खुली हुई हवा है
इसमें और कुछ नहीं
तो गहरी साँस तो ली ही जा सकती है
अभी नहीं—
अभी तो तुम्हारे ज़िन्दा रहने की
बहुत तरह की ज़रूरतें हैं
मसलन तुम्हारे जिन दोस्तों को
जादू से भेड़ बना दिया गया था
वे अभी तक भेड़ बने मिमिया रहे हैं
तुम्हारे जिन शागिर्दो को
ज़िन्दा ताबूत में बन्द कर दिया गया था
वे बौखलाये हुए
चोर दरवाज़े खुलने के लिए
छटपटा रहे हैं
तुम्हारे जिन बुज़ुर्गों की आत्माओं को
शरीर से नारंगी के रस की तरह निचोड़कर
दक्खिनी सूरज के साथ उड़ा दिया गया था
वे अभी भी अन्तरिक्ष में
उल्टा सिर किये लटके हुए हैं
मेरे मस्तक से
झल्लायी हुई किरनें फूट रही हैं
और मैं कुछ नहीं कर पाता
जिस तरह जलते जंगल से
चिनगारियाँ फूटती हैं
और जंगल कुछ नहीं कर पाता
मेरी वाणी से
रह-रहकर शब्दों के ढूह
आते-जाते यात्रियों पर
बरस पड़ते हैं
जिस तरह धसकते पहाड़ से
पत्थर, धूल और चट्टानें बरसती हैं।
विजयदेव नारायण साही की कविता 'सवाल है कि असली सवाल क्या है'