‘Abhimanyu Ki Aatmahatya’, a story by Rajendra Yadav
I shall depart. Steamer with swaying masts, raise anchor for exotic landscapes.
– Sea Breeze, Mallarme
तुम्हें पता है, आज मेरी वर्षगाँठ है और आज मैं आत्महत्या करने गया था? मालूम है, आज मैं आत्महत्या करके लौटा हूँ?
अब मेरे पास शायद कोई ‘आत्म’ नहीं बचा, जिसकी हत्या हो जाने का भय हो। चलो, भविष्य के लिए छुट्टी मिली!
किसी ने कहा था कि उस जीवन देने वाले भगवान को कोई हक़ नहीं है कि हमें तरह-तरह की मानसिक यातनाओं से गुज़रता देख-देखकर बैठा-बैठा मुस्कराए, हमारी मजबूरियों पर हँसे। मैं अपने आपसे लड़ता रहूँ, छटपटाता रहूँ, जैसे पानी में पड़ी चींटी छटपटाती है, और किनारे पर खड़े शैतान बच्चे की तरह मेरी चेष्टाओं पर ‘वह’ किलकारियाँ मारता रहे! नहीं, मैं उसे यह क्रूर आनंद नहीं दे पाऊँगा और उसका जीवन उसे लौटा दूँगा। मुझे इन निरर्थक परिस्थितियों के चक्रव्यूह में डालकर तू खिलवाड़ नहीं कर पाएगा कि हल तो मेरी मुट्ठी में बंद है ही।
सही है, कि माँ के पेट में ही मैंने सुन लिया था कि चक्रव्यूह तोड़ने का रास्ता क्या है, और निकलने का तरीक़ा मैं नहीं जानता था… लेकिन निकलकर ही क्या होगा? किस शिव का धनुष मेरे बिना अनटूटा पड़ा है? किस अपर्णा सती की वरमालाएँ मेरे बिना सूख-सूखकर बिखरी जा रही हैं? किस एवरेस्ट की चोटियाँ मेरे बिना अछूती बिलख रही हैं? जब तूने मुझे जीवन दिया है तो ‘अहं’ भी दिया है, ‘मैं हूँ’ का बोध भी दिया है, और मेरे उस ‘मैं’ को हक़ है कि वह किसी भी चक्रव्यूह को तोड़कर घुसने और निकलने से इंकार कर दे… और इस तरह तेरे इस बर्बर मनोरंजन की शुरूआत ही न होने दे…
और इसीलिए मैं आत्महत्या करने गया था, सुना?
किसी ने कहा था कि उस पर कभी विश्वास मत करो, जो तुम्हें नहीं तुम्हारी कला को प्यार करती है, तुम्हारे स्वर को प्यार करती है, तुम्हारी महानता और तुम्हारे धन को प्यार करती है। क्योंकि वह कहीं भी तुम्हें प्यार नहीं करती। तुम्हारे पास कुछ है जिससे उसे मुहब्बत है। तुम्हारे पास कला है; हृदय है, मुस्कराहट है, स्वर है, महानता है, धन है और उसी से उसे प्यार है; तुमसे नहीं। और जब तुम उसे वह सब नहीं दे पाओगे तो दीवाला निकले शराबख़ाने की तरह वह किसी दूसरे मयकदे की तलाश कर लेगी और तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा तिरस्कार हुआ। एक दिन यही सब बेचनेवाला दूसरा दुकानदार उसे इसी बाज़ार में मिल जाएगा और वह हर पुराने को नये से बदल लेगी, हर बुरे को अच्छे से बदल लेगी, और तुम चिलचिलाते सीमाहीन रेगिस्तान में अपने को अनाथ और असहाय बच्चे-सा प्यासा और अकेला पाओगे…
तुम्हारे सिर पर छाया का सुरमई बादल सरककर आगे बढ़ गया होगा और तब तुम्हें लगेगा कि बादल की उस श्यामल छाया ने तुम्हें ऐसी जगह ला छोड़ा है जहाँ से लौटने का रास्ता तुम्हें ख़ुद नहीं मालूम… जहाँ तुममें न आगे बढ़ने की हिम्मत है, न पीछे लौटने की ताक़त। तब यह छलावा और स्वप्न-भंग ख़ुद मंत्र-टूटे साँप-सा पलटकर तुम्हारी ही एड़ी में अपने दाँत गड़ा देगा और नस-नस से लपकती हुई नीली लहरों के विष बुझे तीर तुम्हारे चेतना के रथ को छलनी कर डालेंगे और तुम्हारे रथ के टूटे पहिए तुम्हारी ढाल का काम भी नहीं दे पाएंगे… कोई भीम तब तुम्हारी रक्षा को नहीं आएगा।
क्योंकि इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता तुम्हें किसी अर्जुन ने नहीं बताया- इसीलिए मुझे आत्महत्या कर लेनी पड़ी और फिर मैं लौट आया – अपने लिए नहीं, परीक्षित के लिए, ताकि वह हर साँस से मेरी इस हत्या का बदला ले सके, हर तक्षक को यज्ञ की सुगंधित रोशनी तक खींच लाए।
मुझे याद है : मैं बड़े ही स्थिर क़दमों से बांद्रा पर उतरा था और टहलता हुआ ‘सी’ रूट के स्टैंड पर आ खड़ा हुआ था। सागर के उस एकांत किनारे तक जाने लायक़ पैसे जेब में थे। पास ही मज़दूरों का एक बड़ा-सा परिवार धूलिया फ़ुटपाथ पर लेटा था। धुआंते गड्ढे जैसे चूल्हे की रोशनी में एक धोती में लिपटी छाया पीला-पीला मसाला पीस रही थी। चूल्हे पर कुछ खदक रहा था। पीछे की टूटी बाउंड्री से कोई झूमती गुनगुनाहट निकली और पुल के नीचे से रोशनी-अँधेरे के चारखाने के फीते-सी रेल सरकती हुई निकल गई – विले पार्ले के स्टेशन पर मेरे पास कुछ पाँच आने बचे थे।
घोड़ाबंदर के पार जब दस बजे वाली बस सीधी बैंड स्टैंड की तरफ़ दौड़ी तो मैंने अपने-आपसे कहा – “वॉट डू आई केयर? मैं किसी की चिंता नहीं करता!”
और जब बस अंतिम स्टेज पर आकर खड़ी हो गई तो मैं ढालू सड़क पार कर सागर-तट के ऊबड़-खाबड़ पत्थरों पर उतर पड़ा।
ईरानी रेस्त्रां की आसमानी नियोन लाइटें किसी लाइटहाउस की दिशा देती पुकार जैसी लग रही थीं… नहीं, मुझे अब कोई पुकार नहीं सुननी… कोई और अप्रतिरोध पुकार है जो इससे ज़्यादा ज़ोर से मुझे खींच रही है। दौड़ती बस में सागर की सीली-सीली हवाओं में आती यह गम्भीर पुकार कैसी फुरहरी पैदा करती थी। और मैं ऊँचे-नीचे पत्थरों के ढोकों पर पाँव रखता हुआ बिल्कुल लहरों के पास तक चला आया था। अँधेरे के काले-काले बालों वाली आसमानी छाती के नीचे भिंचा सागर सुबक-सुबककर रो रहा था, लम्बी-लम्बी साँसें लेता लहर-लहर में उमड़ा पड़ रहा था।
रोशनी की आड़ में पत्थर के एक बड़े से टुकड़े के पीछे जाने के लिए मैं बढ़ा तो देखा कि वहाँ आपस में सटी दो छायाएँ पहले से बैठी हैं। ‘ईवनिंग इन पेरिस’ की ख़ुशबू पर अनजाने ही मुस्कराता मैं दूसरी ओर बढ़ आया। हाँ, यही जगह ठीक है, यहाँ से अब कोई नहीं दिखता। धम से बैठ गया था। सामने ही सागर की वह सीमा थी जहाँ लहरों से अजगर फन पटक-पटक फुफकार उठते थे और रूपहले फेनों की गोटें सागर की छाती पर यहाँ-वहाँ अँधेरे में दमक उठती थीं। पानी की बौछार की तरह छींटे शरीर को भिगो जाते थे और पास की दरारवाली नाली में झागदार पानी उफ़न उठता था।
सब कुछ कैसा निस्तब्ध था! कितना व्याकुल था! हाँ, यही तो जगह है जो आत्महत्या-जैसे कामों के लिए ठीक मानी गई है। किसी को पता भी नहीं लगेगा। सागर की गरज में कौन सुनेगा कि क्या हुआ और बड़े-बड़े विज्ञापनों के नीचे एक पतली-सी लाइन में निकली इस सूचना को कौन पढ़ेगा? इस विराट बम्बई में एक आदमी रहा, न रहा। मैंने ज़रा झाँककर देखा- मछुओं के पास वाले गिरजे से लेकर ईरानी रेस्त्रां के पास वाले मंडप तक, सड़क सुनसान लेटी थी। बंगलों की खिड़कियाँ चमक रही थीं और सफ़ेद कपड़ों के एकाध धब्बे-से कहीं-कहीं आदमियों का आभास होता था। रात का आनंद लेने वालों को लिए टैक्सी इधर चली आ रही थी।
असल में मैं आत्महत्या करने नहीं आया था। मैं तो चाहता था कोई मरघट-जैसी शांत जगह, जहाँ थोड़ी देर यों ही चुपचाप बैठा जा सके। यह दिमाग़ में भरा सीसे-सा भारी बोझ कुछ तो हल्का हो, यह साँस-साँस में रड़कती सुनाई की नोक-सा दर्द कुछ तो थमे। लहरें सिर पटककर-पटककर रो रही थीं और पानी कराह उठता था। घायल चील-सी हवा इस क्षितिज तक चीख़ती फिरती थी। आज सागर-मंथन ज़ोरों पर था। चारों ओर भीषण गरजते अँधेरे की घाटियों में दैत्यवाहिनी की सफें की सफें मार्च करती निकल जाती थीं। दूर, बहुत दूर, बस दो चार बत्तियाँ कभी-कभी लहरों के नीचे होते ही झिलमिला उठती थीं। बाईं ओर नगर की बत्तियों की लाइन चली गई थी। सामने शायद कोई जहाज़ खड़ा है, बत्तियों से तो ऐसा लगता है।
इस चिंघाड़ते एकांत में, मान लो, एक लहर ज़रा-सी करवट बदलकर झपट पड़े तो…? किसे पता चलेगा कि कल यहाँ, इस ढोंके की आड़ में, कोई अपना बोझ सागर को सौंपने आया था, एक पिसा हुआ भुनगा। मगर आख़िर मैं जियूँ ही क्यों? किसके लिए? इस ज़िन्दगी ने मुझे क्या दिया? वहीं अनथक संघर्ष स्वप्न भंग, विश्वासघात और ज़लालत। सब मिलाकर आपस में गुत्थम-गुत्था करते दुहरे-तिहरे व्यक्तित्व, एक वह जो मैं बनना चाहता था, एक वह जो मुझे बनना पड़ता था…
और उस समय मन में आया था कि, क्यों नहीं कोई लहर आगे बढ़कर मुझे पीस डालती? थोड़ी देर और बैठूँगा, अगर इस ज्वार में आए सागर की लहर जब भी आगे नहीं आयी तो मैं ख़ुद उसके पास जाऊँगा। और अपने को उसे सौंप दूँगा… कोई आवेश नहीं, कोई उत्तेजना नहीं, स्थिर और दृढ़… ख़ूब सोच-विचार के बाद….
अँधेरे के पार से दिखती रोशनी के इस गुच्छे को देख-देखकर जाने क्यों मुझे लगता है कि कोई जहाज़ है जो वहाँ मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। जाने किन-किन किनारों को छूता हुआ आया है यहाँ लंगर डाले खड़ा है कि मैं आऊँ और वह चल पड़े। यहाँ से दो-तीन मील तो होगा ही। कहीं उसी में जाने के लिए तो मैं अनजाने रूप से नहीं आ गया… क्योंकि वह मुझे लेने आएगा यह मुझे मालूम था। दिन-भर उस जानने को मैं झुठलाता रहा और अब आख़िर रात के साढ़े दस बजे बम्बई की लम्बी-चौड़ी सड़कें, और कंधे रगड़ती भीड़ें चीरता हुआ मैं यहाँ चला आया हूँ। जाने कौन मन में घिसे रिकार्ड-सा दिनभर दुहराता रहा है कि मुझे यहाँ जाना है।
अनजान पहाड़ों की ख़ूँख़ार तलहटियों से आती यह आवाज़ हातिम ने सुनी थी और वह सारे जाल-जंजाल को तोड़कर उस आवाज़ के पीछे-पीछे चला गया था। जाने क्यों मैंने भी तो जब-जब पहाड़ों के चीड़ और देवदारू-लदे ढलवानों पर चकमक करती बर्फ़ानी चोटियों और लहराते रेशम से फैले सागर की तरंगों को आँख भरकर देखा है, मुझे यही आवाज़ सुनायी दी है और मुझे लगा है कि उस आवाज़ को मैं अनसुनी नहीं कर पाऊँगा। हिप्नोटाइज्ड की तरह दोनों बाँहें खोलकर अपने को इस आवाज़ को सौंप दूँगा। अब भी इसी पुकार पर मैं अपने-आपको पहाड़ की चोटी से छलांग लगाकर लहरों तक आते देख रहा हूँ। वह जहाज़ मेरी राह में जो खड़ा है, मैं आवाज़ देकर उन्हें बता देना चाहता हूँ कि देखो, मैं आ गया हूँ… देखो, मैं यहाँ बैठा हूँ, मुझे लिए बिना मत जाना।
मुझे लगता है एक छोटी-सी डोंगी अभी जहाज़ से नीचे उतार दी जाएगी और मुझे अपनी ओर आती दिखाई देगी… बस, उस लहर के झुकते ही तो दिख जाएगी। उसमें एक अकेली लालटेन वाली नाव! कहाँ पढ़ा था? हाँ याद आया, चेखव की ‘कुत्तेवाली महिला’ में ऐसा ही दृश्य है जो एक अजीब कवित्वपूर्ण छाप छोड़ गया है मन पर… गुरोव और सर्जिएव्ना को मैं भूल गया हूँ (अभी तो देखा था उस पत्थर की आड़ में) मगर इस फुफकारते सागर को देखकर मेरा सारा अस्तित्व सिहर उठता है। यह गुर्राते शेर-सी गरज और रह-रहकर मूसलाधार पानी की तरह दौड़ती लहरों की वल्गा-हीन उन्मत्त अश्व-पंक्तियाँ। मुझे इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता कोई नहीं बताता? अलीबाबा के भाई की तरह मैंने भीतर जाने के सारे रास्ते पा लिए हैं लेकिन उस ‘सिम-सिम खुला जा’ मंत्र को मैं भूल गया हूँ जिससे बाहर निकलने का रास्ता खुलता है। लेकिन मैं उस चक्रव्यूह में क्यों घुसा? कौन-सी पुकार थी जो उस नौजवान को अनजान देश की शहजादी के महलों तक ले आयी थी?
दूर सतखण्डे की हाथीदांती खिड़की से झाँकती शहजादी ने इशारे से बुलाया और नौजवान न जाने कितने गलियारे और बारहदरियाँ लाँघता शाहज़ादी के महलों में जा पहुँचा। सारे दरवाज़े ख़ुद-बख़ुद खुलते गए। आगे झुके हुए ख्वाजासराओं के बिछाए ईरानी कालीन और किवाड़ों के पीछे छिपी कनीज़ों के हाथ उसे हाथों-हाथ लिये चले गए; और नौजवान शाहज़ादी के सामने था… ठगा और मंत्र-मुग्ध।
शाहज़ादी ने उसे तोला; अपने जादू और सम्मोहन को देखा और मुस्करा पड़ी। नौजवान होश में आ गया। हकलाकर बोला, “हीरे बेचता हूँ, जहाँपनाह।”
“हाँ, हमें हीरों का शौक़ है और हमने तुम्हारे हीरों की तारीफ़ सुनी है।”
और उसकी चमड़े की थैली के चमकते अंगारे शाहज़ादी की गुलाबी हथेली पर यों जगमगा उठे जैसे कमल पर ओस की बूँदें सतरंगी किरणों में खिलखिला उठें… उसे हीरों का शौक़ था। उसे हीरों की तमीज़ थी। उसके कानों में हीरे थे, उसके केशों मे हीरे थे, कलाइयाँ हीरों से भरी थीं और होठों के मखमल में जगमगाती हीरों पर आँख टिकाने की ताव उस नौजवान में नहीं थी।
“क़ीमत…?” सवाल आया।
“क़ीमत…?”
“क़ीमत नहीं लोगे क्या?” शाहज़ादी के स्वर में परिहास मुखर हुआ।
नौजवान सहसा सम्भल गया, “क्यों नहीं लूँगा हुज़ूर? यही तो मेरी रोज़ी है। क़ीमत नहीं लूँगा तो बूढ़ी माँ और अब्बा को क्या खिलाऊँगा।” लेकिन वह कहीं भीतर अटक गया था। उसकी पेशानी पर पसीना चुहचुहा आया।
“क़ीमत क्या, बता दे?” किसी ने दुहराया।
“आपसे कैसे अर्ज़ करूँ कि इनकी क़ीमत क्या है? ज़रूरतमंदों और पारखियों के हिसाब से हर चीज़ की क़ीमत बदलती रही है। आपको इनका शौक़ है, आप ज़्यादा जानती हैं।”
“फिर भी, बदले में क्या चाहोगे?” शाहज़ादी ने फिर पारखी निगाह से हीरों को तोला। उसकी आवाज़ दबी थी, “लगते तो काफ़ी क़ीमती हैं।”
“हुज़ूर, जो मुनासिब समझें। ख़ुदारा, मैं सचमुच नहीं जानता कि इनकी क़ीमत आपसे क्या माँग लूँ? आप एक दीनार देंगी, मुझे मंज़ूर है।” नौजवान कृतार्थ हो आया।
“फिर भी आख़िर, अपनी मेहनत का तो कुछ चाहोगे ही न!” शहजादी की आँखों के हीरे चमकने लगे थे और उनमें प्रशंसा झूम आयी थी।
“हीरों को सामने रखकर शाहज़ादी इनकी मेहनत की कहानी सुनना पसंद करेंगी?” इस बार नौजवान की वाणी में आत्मविश्वास था और उसने गर्दन उठा ली थी। होंठों पर मुस्कुराहट रेंग आयी थी।
“तुम लोग ये सब लाते कहाँ से हो?”
“कोहकाफ़ से!”
“कोहकाफ़” सुनकर ताज्जुब से खुले शाहज़ादी के मुँह की ओर नौजवान ने देखा और बाँहों की मछलियों को हाथों से टटोलते हुए बोला, “तो सुनिए, मेढ़ों और बकरों का एक बड़ा झुंड लेकर मैं पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर जा पहुँचा। वहाँ उनकों मैंने जिबह कर डाला और उनके गोश्त को अपने बदन पर चारों तरफ़ इस तरह बाँध लिया कि मैं ख़ुद भी गोश्त की एक भारी लोथ लगने लगा। उसी ग़लाज़त और बदबू में मुझे वहाँ कई दिन बारिश और धूप सहते लेटे रहना पड़ा। तब फिर आँधी की तरह वह उकाब आया जिसका मुझे इंतज़ार था। चारों ओर एक जलजले का आलम बरपा हो गया था। उसने झपटकर मुझे अपने पंजों में दबोचा और बच्चों को खिलाने के लिए ले चला घोंसले की तरफ़।
बीच आसमान में लटकता मैं चला जा रहा, आख़िर मैंने अपने आपको बहुत ही वसीह खुली घाटी में पाया। यही कोहकाफ़ था। यहाँ एक चोटी पर मादा उकाब अपने बच्चों को दुलरा रही थी। जैसे ही मैंने ज़मीन छुई, छुरी की मदद से अपने को फ़ौरन ही उस सड़े गोश्त से अगल कर लिया, और चुपचाप एक चट्टान की आड़ में हो गया। चारों ओर देखा तो मेरी आँखें ख़ुशी से दमकने लगीं। वह घाटी सचमुच हीरों की थी। कितने भरूँ और कितने छोड़ूँ! मैं सब कुछ भूलकर दोनों हाथों से ही अपनी झोली में भरने लगा। लेकिन यह देखकर मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई कि चारों तरफ़ उस घाटी में भयानक अज़दहे लहरा रहे थे – उकाब के डर से उस चोटी के पास नहीं आते थे, लेकिन जैसे उस चोटी की रखवाली कर रहे हों। उनकी फुंकारों से सारी घाटी गूँज रही थी।
जलती लपटों-सी जीभें देख-देखकर मेरे तो सारे होश फ़ना हो गए। अब कैसे लौटूँ? आख़िर मैंने मौत की परवाह न करके फिर उसी उकाब के साथ वापस आने की सोची और फिर उसके पंजे से जा चिपका। बीच में पकड़ छूट गई; क्योंकि दो दिन लगातार लटके उड़ते रहने से मेरे हाथों ने जवाब दे दिया था। छूटकर जो गिरा तो सीधा समुंदर में जा पड़ा। ख़ैर, किसी तरह एक बहता हुआ तख़्त हाथ लगा और उसी के सहारे आपके इस ख़ूबसूरत मुल्क में आ लगा।”
नौजवान की आवाज़ में चुनौती और आत्मविश्वास दोनों थे। “यह मेरी मेहनत की कहानी है, शाहज़ादी!”
शाहज़ादी ने उस जाँबाज़ नौजवान को प्रशंसा की निगाहों से देखा, “आफ़रीं! सचमुच आदमी तुम हिम्मत वाले हो?”
फिर जाने क्या सोचती-सी अनमनी अपलक आँखों से उसे देखती रही, देखती रही और दूर कहीं हीरे की घाटियों में खो गई। वह भूल गई कि उसके होंठों की वह मुस्कराहट अभी तक अन-सिमटी पड़ी है। वहीं कहीं दूर से बोली, “यों चारों तरफ़ से ग़लाज़त में लिपटे, पंजों में बिंधे अनजानी ख़ूँख़ार अँधेरी घाटियों में उतरते चले जाने में कैसा लगा होगा तुम्हें? और फिर जब तुमने भट्टों-सी जलती अज़दहों की आँखें देखी होंगी।”
फिर उसे होश आ गया। स्नेह से बोली, “अच्छा क़ीमत बोल दो अब। और देखो, हमें इसी घाटी के हीरे और चाहिए।”
“आपने इन्हें परखा, मेरी मेहनत को देखा, बस आपकी यह हमदर्द मुस्कुराहट ही इनकी क़ीमत थी और वह मुझे मिल गई।”
हिम्मत करके वह बोला, “और पारखी की यह हमदर्द मुस्कुराहट मुझे मिलती रहे, मैं फिर ग़लाज़त और गन्दगी में लिपटूँगा, और ख़ौफ़नाक गारों और घाटियों में उतरूंगा और फिर भयानक अजगरों और अज़दहों के माथों से कीमती मणि और हीरे चुन-चुनकर लाऊँगा।….”
और तब अपनी बातचीत में ही तोड़कर मलिका शहरजाद ने सुलतान शहरयार से पूछा, “इसके बाद जानते हैं साहिबेक़ुरान, कि क्या हुआ?”
फिर गहरी सांस लेकर ख़ुद ही बोली, “मेरे आक़ा, इसके बाद बात ख़त्म होने से पहले ही वे सारे हीरे उस नौजवान के मुँह पर आ पड़े थे और शाहज़ादी की ख़्वाबगाह के किवाड़ फटाक से इस तरह बंद हो गए कि नौजवान का माथा उस आबनूसी लकड़ी से जा बजा और किवाड़ों पर नक्श लकड़ी के ख़ूबसूरत फूल उसकी आंखों के आगे फिरकनी की तरह नाच उठे, लेकिन हीरों की शौक़ीन शाहज़ादी के हाथों से आज कितना क़ीमती हीरा निकल गया था इसे वह आज नहीं जान पायी… हीरे उसे और भी मिलेंगे… लेकिन शायद कोहकाफ़ के अज़हदो वाली घाटी का हीरा उसे न मिले….”
वह धीरे से दर्द से हंसा, “शाहज़ादी को कोई ऐसा हीरा मंजूर नहीं है जिसकी क़ीमत वह अशर्फ़ियों में न चुका सके।”
और उसे तब अपनी ग़लती महसूस हुई। उसने शाहज़ादी से सीधे ही बात करने की ज़ुर्रत की थी और इसे उसकी ज़बान में गुस्ताख़ी कहते हैं। वह भूल गया था कि उनके बीच में हीरा था और शाहज़ादी को शौक़ था, लेकिन उस नौजवान की रोज़ी था। शाहज़ादी को तो हीरों से सरोकार था; वह कहां से आता है, कौन लाता है, इन सब फ़िजूलियात से उसे क्या मतलब? लेकिन वह अपने-आपसे बोला, ”यही हीरा तो है जो मुझे शाहज़ादी के महलों के भीतर उसकी ख़्वाबगाह तक ले आया है, लेकिन ख़ैर, हीरा पास रहा तो मैं और भी ऊंचे महलों में जाऊंगा…. मगर शाहज़ादी की मुस्कुराहट में जादू है।”
लेकिन जब उसने घूमकर देखा तो लगा कि जाने किन अनजानी भूल-भुलैया में वह खड़ा है। अब कोई क़नीज उसे रास्ता नहीं दिखाती थी, अब कोई ख्वाजासरा उसके लिए कालीन नहीं बिछाता था, अब कोई दरवाज़ा उसके लिए अपने आप नहीं खुलता था। गलियारों और बारहदरियों के पास अब कोई मुस्कुराती आवाज़ उसे नहीं खींचती थी। और उसने पाया कि जादुई गुफ़ा का ‘खुल जा सिम-सिम’ का मन्त्र उसे बिल्कुल याद नहीं आ रहा। वह हिन्दी के जादूगर के बनाए उस काठ के घोड़े पर चढ़कर बादलों में उड़ने तो लगा था; लेकिन नीचे उतारने की कला उसे मालूम नहीं थी।
माँ सुभद्रा, तुम चक्रव्यूह की बात सुनते-सुनते सो क्यों गई थीं?
जहाज़ अभी भी मेरी राह देख रहा था और बत्तिया अभी आँखें झपटा-झपकाकर मुझे बुला रही थीं… मरोड़े खाते हुए झाग उगलती लहरों की अप्रतिरोध्य पुकार अभी भी बांह पकड़कर खींच रही थी और उनकी मणियां अब भी कठोर पत्थरों पर बिखर-बिखर जाती थीं। हां, सुभद्रा तो मेरे एक दोस्त की पत्नी का नाम है न… कैलाश की पत्नी का।
कैलाश की पत्नी का नाम के साथ ही उसका क़िस्सा आँखों के आगे उभरकर आता है।
पाँच साल में ही सुभद्रा ने पाया कि कैलाश के साथ उसका निर्वाह नहीं हो सकता। अपनी एक पुरानी क्लास-फ़ेलो से उसका प्यार है, पत्नी के साथ तो जैसे वह केवल कर्त्तव्य निभा रहा है। उसने कैलाश के पतलून की जेब से निकले ख़त से जान लिया कि उसे मीना का नवीनतम ख़त मिला है तो वह अपमान से रो पड़ी। बहुत बार रोयी थी वह इस बात को लेकर, बहुत बार उसने सिर फोड़े थे, मायके गई थी, और बहुत बार अपने बड़े लड़के प्रदीप को धुना था। चूल्हों में न जाने कितनी बार पानी औंधाया गया, न जाने कितनी बार थालियां फेंकी गईं और कैलाश ने साफ़ कह दिया था, “अब मेरे बस का नहीं है कि अपने बचपन के दिनों से चले आते पन्द्रह-बीस साल के सम्पर्क को तोड़ लूं। मीना मेरे व्यक्तित्व और जीवन का एक भाग बन गई है। पिता का दिया हुआ फ़र्ज़ तुम हो, और मीना मेरा अपना फ़र्ज़ है। मुझे कहीं तो ज़िंदा रहने दो।”
“ठीक है, तुम ज़िन्दा रहो, तुम्हारी मीनाजी ज़िन्दा रहें। मैं जा रही हूँ”, जब लड़ाई अपने चरम पर पहुंच गई तो सुभद्रा भाभी ने कहा। वह सचमुच आजिज़ आ गई थी। कभी-कभी कैलाश का व्यवहार उसके प्रति ऐसा हो जाता कि मुझे ख़ुद बुरा लगता।
“मैं अब तुम्हारे रास्ते से हट जाऊंगी। सम्भालो अपने बच्चों को…..।”
“टल जाती तो जीवन में शान्ति आती”, कैलाश ने कुढ़कर जवाब दिया।
उसने छः महीने के धीर को कैलाश की गोदी में ला पटका और बैठकर धरती पर नीला-थोथा पीसने लगी। ऐसी धमकियां कैलाश बहुत बार देख चुका था, बैठा देखता रहा। औटते दूध में नीला-थोथा डाला गया, मगर वह मनहूस और बुझा बैठा देखता रहा। सुभद्रा भीतर चली गई तो उसने सुनाया, “तुम्हें क़सम है अपने घरवालों की जो इसे पी ही न लो, या लाकर मुझे दे दो, मैं पी जाऊंगा।”
लेकिन उसके जाने के ढंग से सहमकर बच्चे को खाट पर डालकर जब तक कैलाश भीतर पहुंचे-पहुंचे, तब तक गिलास ख़ाली हो चुका था और सुभद्रा पल्ले से मुंह पोंछ रही थी। तब कैलाश झटके से जैसे सचेत हुआ।
झपटकर उसने सुभद्रा को बांहों में भर लिया, “सुभद्रा, सुभद्रा! बताओ, तुमने सचमुच वह दूध पी लिया?”
फिर उसने गिलास के तले में चिपका नीला-थोथा देखा। सुभद्रा हाँफती हुई झूम रही थी, वह बौखलाया-सा भागा-भागा मेरे पास आया, “चलो, चलो! अभी एमर्जेन्सी चलना है। सुभद्रा ने ज़हर पी लिया है। नीले-थोथे में मिलाकर जाने क्या पी लिया है और अब हिलती-डुलती भी नहीं है।”
कैलाश पागल हो गया था, मैं वहां पहुंचा तो सुभद्रा के होंठों के कोनों से नीला-नीला पानी जैसा टपक रहा था। आँखें शराबियों की तरह बोझ से बन्द थीं। गोदी में भरकर हमने उसे तांगे में रक्खा, झटक-झटककर जगाए रखने की कोशिश करते रहे। पहले उठा-उठाकर आँखें खोलते रहे।
लेकिन वह होश में नहीं थी। प्रदीप माँ से चिपककर रो पड़ा। उफ़, सुभद्रा ने यह क्या कर डाला?
एमर्जेन्सी वार्ड में मुँह में नली डाल-डालकर उन्हें कै कराई गई, सोने न देने की पूरी कोशिश की गई और जब विश्वास हो गया कि सारा ज़हर निकल गया तो नाक में नलियां डालकर ऑक्सीजन दिया जाने लगा। तभी उन्हें होश आया, पलकें उठीं। प्रदीप तो पास ही खड़ा था। बग़ल में पड़े अपने बेजान हाथ में उन्होंने प्रदीप का छोटा-सा हाथ महसूस किया, उसे दबाया, पहचाना। तब सहसा उन्होने तड़पकर नलियाँ निकालकर फेंक दीं और ज़ोर से रो पड़ी, “डाक्टर साहब, मुझे बचा लो। मेरे बच्चे बहुत छोटे-छोटे हैं। उन्हें कौन देखगा? कौन कपड़े पहनाएगा, सुलाएगा कौन उन्हें? मुझे मेरे बच्चों के लिए बचा लो डाक्टर साहब। मैं भीख मांगूगी, आटा पीसूंगी, लेकिन इन बच्चों के लिए जिऊंगी।”
मेरी आँखों में आँसू आ गए थे!….
दूर जहाज़ों की झिलमिलाती बत्तियों में सुभद्रा भाभी का चेहरा उभर आया था, “मुझे मेरे बच्चों के लिए बचा लो, डाक्टर साहब! मैं भीख मांगूगी, मैं आटा पीसूंगी और इन बच्चों के लिए जिऊंगी।”
सुभद्रा भाभी मां थी – वह कैलाश के लिए ज़हर खाकर मर सकी थी; लेकिन बच्चों के लिए मौत के चंगुल से छूटकर भी आ सकती थीं। मैंने तो अपने ‘बच्चों’ को नौ महीने नहीं, नौ-नौ वर्ष दिमाग़ में रक्खा है, न जाने कितना ख़ून और नींद देकर पाला है और उन्हें छोड़कर यहां चला आता हूँ मरने? – यहां जहां की हर प्रतिध्वनि कहती है, “मुझे मेरे बच्चों के लिए बचा लो, डाक्टर।”
और मैं झटके से उठ बैठा, ठीक जैसे सुभद्रा भाभी उठी थीं। हाथ के कंकड़ को ज़ोर से घुमाकर लहरों पर फेंक दिया और दूर प्रतीक्षा करते जहाज़ की ओर गुर्राती लहरों से बोला, “नहीं, दोस्त सागर, अभी नहीं… अभी नहीं, अंधेरे की गरजती लहरों! भाई जहाज़, फिर कभी आना। आज तो मैं लौट रहा हूँ…।”
तब मैंने देखा कि लहरों की फुहार में मेरे कपड़े सराबोर हो गए थे।
फिर मैं लौट आया। ऊबड़-खाबड पत्थरों के ढोकों पर क़दम रखता हुआ। …खंदकों का पार करता हुआ जैसे शिव लौट आए थे सती की लाश को कन्धे पर लादकर। वह मेरी अपनी लाश थी…
सुना, आज अपनी वर्षगांठ पर मैं ‘आत्म-हत्या’ करके लौटा हूँ।
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