अभिसारिके मिलना मुझे
पेड़ों तले उस छाँव में
पत्ते टहलते हो जहाँ पर
बाँध घुँघरू पाँव में

हल्की सी ठण्डी धूप हो
और कोयलों की कूक हो
बस आँखों की आँखें सुनें
सीने की धड़कन मूक हो

फिर झाँक करके घोंसले
में, पक्षी के जोड़े के संग
हम वहीं सो जाएँगे
एक हम हो जाएँगे
अभिसारिके! अभिसारिके!

अभिसारिके मिलना मुझे
यमुना के तू उस तीर पर
जहाँ नंगे पाँव चल सकें
हम हाथ थामे, नीर पर

नदिया की कल-कल में भी
जहाँ एक कल का भास् हो
और नाव उड़ती हो परों से
बह रहा आकाश हो

फिर मगन जल-स्रोत में
लहरों की बहती ओट में
हम वहीं सो जाएँगे
एक हम हो जाएँगे
अभिसारिके! अभिसारिके!

अभिसारिके मिलना मुझे
तू बिजलियों की आड़ में
जहाँ बूँदे थर-थर काँपती
हों गरजनों की बाढ़ में

जहाँ तारिकाएँ सुन रही
हों चाँदनी से इक ग़ज़ल
और विधु अलसा रहा हो
नींद में होकर विकल

फिर अवसरों को भाप कर
और बादलों को ढाप कर
हम वहीं सो जाएँगे
एक हम हो जाएँगे
अभिसारिके! अभिसारिके!

अभिसारिके मिलना मुझे
तू प्रेम के बाज़ार में
जहाँ दौलतें बेकार हों
सब लुट रहा हो प्यार में

सपनों के ठेले सजे हों
स्नेह की बस तोल हो
हों दुकानें हर्ष की
आलिंगनों में मोल हो

फिर उठती-गिरती बोलियों को
सुनके जैसे लोरियाँ हों
हम वहीं सो जाएँगे
एक हम हो जाएँगे
अभिसारिके! अभिसारिके!

अभिसारिके मिलना मुझे
प्राचीन एक अध्याय में
जहाँ हम ही जैसा इक युगल
हो प्रेम के व्यवसाय में

इतिहास की तारीख हो
अकबर का वो दरबार हो
मार डालो प्रेमियों को
हर तरफ हुँकार हो

फिर इस जगत को भूलकर
तख्तों पे दोनों झूलकर
हम वहीं सो जाएँगे
एक हम हो जाएँगे
अभिसारिके! अभिसारिके!

पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!