अच्छा है उनसे कोई तक़ाज़ा किया न जाए
अपनी नज़र में आप को रुस्वा किया न जाए

हम हैं, तेरा ख़याल है, तेरा जमाल है
इक पल भी अपने आप को तन्हा किया न जाए

उठने को उठ तो जाएँ तेरी अंजुमन से हम
पर तेरी अंजुमन को भी सूना किया न जाए

उनकी रविश जुदा है, हमारी रविश जुदा
हम से तो बात-बात पे झगड़ा किया न जाए

हर-चंद एतिबार में धोखे भी हैं मगर
ये तो नहीं किसी पे भरोसा किया न जाए

लहजा बना के बात करें उनके सामने
हम से तो इस तरह का तमाशा किया न जाए

ईनाम हो, ख़िताब हो वैसे मिले कहाँ
जब तक सिफ़ारिशों को इकट्ठा किया न जाए

इस वक़्त हमसे पूछ न ग़म रोज़गार के
हम से हर एक घूँट को कड़वा किया न जाए!

जाँ निसार अख़्तर की ग़ज़ल 'अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं'

Book by Jaan Nisaar Akhtar:

जाँ निसार अख़्तर
जाँनिसार अख्तर (18 फ़रवरी 1914 – 19 अगस्त 1976) भारत से 20 वीं सदी के एक महत्वपूर्ण उर्दू शायर, गीतकार और कवि थे। वे प्रगतिशील लेखक आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे। उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए भी गाने लिखे।