अच्छा
खण्डित सत्य
सुघर नीरन्ध्र मृषा से,
अच्छा
पीड़ित प्यार सहिष्णु
अकम्पित निर्ममता से।
अच्छी कुण्ठा-रहित इकाई
साँचे-ढले समाज से,
अच्छा
अपना ठाठ फ़क़ीरी
मँगनी के सुख-साज से।
अच्छा
सार्थक मौन
व्यर्थ के श्रवण-मधुर भी छन्द से।
अच्छा
निर्धन दानी का उघड़ा उर्वर दुख
धनी सूम के बंझर धुआँ-घुटे आनन्द से।
अच्छे
अनुभव की भट्टी में तपे हुए कण-दो कण
अन्तर्दृष्टि के,
झूठे नुस्ख़े वाद, रूढ़ि, उपलब्धि परायी के प्रकाश से
रूप-शिव, रूप-सत्य की सृष्टि के।
अज्ञेय की कविता 'हरी घास पर क्षण-भर'