अक्सर बैठे घिसती रहती हूँ
चेतना लोगों की
कि कहीं किसी कोने में छिपा
सम्वेदना का जिन्न
मुझसे आकर पूछे-
“क्या हुक्म मेरे आक़ा?”
और मैं झट से उसे
पांडोरा के सारे सन्दूक थमा
अंतरिक्ष के बाहर फेंक आने को कह दूँ…

धरती का दर्द अब देखा नहीं जाता!
कोशिश की है कभी ब्लेड से हाथ की रेखाएँ बदलने की?

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