ईश्वर की सृष्टि में अनेक जीव-जंतु ऐसे हैं जिनकी विचित्रता का वृत्तांत सुनकर आश्चर्य चकित होना पड़ता है। अभी, कुछ ही समय पूर्व, जॉन जे वार्ड (John J. Ward) नामक एक सज्जन ने एक प्रकार की अद्भुत मक्खियों का पता लगाया है। इन मक्खियों की विचित्रता का हाल सुनकर प्राणी-तत्त्व-वेत्ता अवाक रह जाते हैं।
वार्ड साहब कई साल से अपने बगीचे में देख रहे थे कि एक नियत समय पर बहुत सी मक्खियाँ आकर गुलाब के पौधों पर बैठ जाती हैं। दो चार दिन के भीतर ही ये मक्खियाँ इतनी अधिक हो जाती हैं कि इनसे बगीचे के प्रायः सभी पेड़-पौधे ढक जाते हैं। वार्ड साहब इनकी इस बढ़ती पर बड़े चकित हुए। वे अनुसंधान करने लगे कि एकाएक ये मक्खियाँ इसी समय यहाँ कैसे आ पहुँचती हैं और इनकी अधिक वृद्धि इतनी जल्दी कैसे हो जाती है। बहुत दिनों के बाद वार्ड साहब को इनके विषय में जो बातें मालूम हुईं वे बहुत ही कौतूहल-जनक हैं।
वार्ड साहब कहते हैं कि शरद ऋतु के अंतिम भाग में ये मक्खियाँ उनके बगीचे में आती हैं। इनका आकार साधारण मक्खी से कुछ छोटा होता है। रंग इनका हरा होता है। बगीचे में आते ही ये वहाँ के वृक्षों के पत्तों पर अण्डे देने लगती हैं। अण्डों के साथ ही एक प्रकार का रस निकलता है। इस रस के प्रभाव से अण्डे वृक्षों के पत्तों पर चिपक जाते हैं। अण्डों का ऊपरी भाग मज़बूत होता है, इसी कारण अधिक-से-अधिक ठण्ड पड़ने पर भी इन्हें कुछ भी हानि नहीं पहुँचती। वसन्त का प्रारम्भ होते ही अण्डे फूटने लगते हैं। अण्डों से स्त्री-जातीय बच्चे निकलते हैं। इनके पंख नहीं होते। तीन-चार दिन के भीतर ही ये बढ़कर बड़े हो जाते हैं। इन अण्डों से पुरुष-जातीय मक्खियाँ नहीं पैदा होतीं। पुरुष-जातीय मक्खियों के न होने पर भी नई पैदा हुई मक्खियाँ बच्चे जनती हैं। इनके भी बच्चे स्त्री-जाति ही के होते हैं। पर ये अण्डों से नहीं, माता के गर्भ से निकलते हैं। इनके भी पंख नहीं होते। वार्ड साहब लिखते हैं कि ये मक्खियाँ केवल शरद ऋतु के अन्तिम ही भाग में अण्डे देती हैं; और समय में बच्चे पैदा करती रहती हैं। इसके सिवा सबसे बड़ी आश्चर्य की बात यह है कि पुरुष-जाति की मक्खियों की सहायता के बिना ही इनके बच्चे पैदा होते हैं।
नवजात पक्षविहीन मक्खियाँ ज्यों ही चार-पाँच दिनों में बढ़कर बड़ी हो जाती हैं, त्यों ही उनके पक्षविहीन स्त्री-जातीय बच्चे पैदा होते हैं। बड़े हो जाने पर इन बच्चों से भी उसी तरह पक्षविहीन स्त्री-जातीय बच्चे पैदा होते हैं। इस प्रकार इनका यह व्यापार निरन्तर जारी रहता है। किन्तु एक स्थान पर जब ये इतनी बढ़ जाती हैं कि इनके रहने के लिए काफी जगह नहीं रहती, तब इनके गर्भ से पंखयुक्त स्त्री-जातीय बच्चे पैदा होते हैं। ये बच्चे उड़कर अन्यत्र चले जाते हैं। वहाँ जाकर फिर पक्षविहीन स्त्री-जातीय बच्चे पैदा करने लगते हैं।
शरद ऋतु के अन्तिम भाग में पक्षविहीन मक्खियों का एक अन्तिम दल पैदा होता है। वही अण्डे देता है। उसके पैदा होने के बाद ही, कुछ दिनों में, एक पुरुष-जातीय दल भी पैदा होता है। पुरुष-जातीय मक्खियों का यह दल वर्ष में एक ही बार उत्पन्न होता है। स्त्री-जातीय मक्खियों का अन्तिम दल, जो अण्डे देता है, इसी पुरुष-जातीय दल की सहायता से देता है। अण्डे देने के बाद ही इन दोनों दलों की सब मक्खियाँ मर जाती हैं। इनके अण्डे ही वसन्त ऋतु के प्रारम्भ में फूटते हैं और उनसे निकली हुई स्त्री-जातीय मक्खियाँ क्रमशः अपने-आप ही स्त्री-जातीय पक्षविहीन और पक्षयुक्त बच्चे पैदा करती रहती हैं।
एक प्राणीतत्त्व-वेत्ता ने हिसाब लगाकर देखा है कि एक-एक मक्खी अपने जीवन समय में, अर्थात कई सप्ताहों के भीतर, छः अरब मक्खियों के जन्म का कारण होती है।
विलायत में हक्सले (Huxley) नामक एक प्राणीतत्त्व-वेत्ता हो गया है। उसका कथन है कि एक मक्खी की दस पीढ़ियों की सब मक्खियाँ यदि इकट्ठी की जा सकें तो उन सबका वज़न इतना होगा जितना कि साढ़े तीन मन के वज़न वाले 50 करोड़ मनुष्यों का होता है। इस बढ़ती का कुछ ठिकाना है!
ये मक्खियाँ वृक्षों और पौधों के पत्ते, फल-फूल और उनके नवीन-नवीन अंकुरों को खाकर अपना जीवन-निर्वाह करती हैं। यदि ये सारी मक्खियाँ एक साल भी जीवित रहें, तो देश भर में कहीं कोई उभ्दिज्ज वृक्ष और पौधे न रह जाएँ। पर, प्रकृति-देवी ने इनके नाश का भी उपाय नियत कर दिया है। सब प्रकार के जीव-जंतु, कीट-पतंग और पक्षी आदि इन मक्खियों को अपना आहार बनाते हैं। इस प्रकार उनके द्वारा इनकी करोड़ों की संख्या विनष्ट हो जाती हैं।
वार्ड साहब ने इन मक्खियों के एक प्रबल शत्रु का भी वर्णन किया है। वह एक प्रकार की बर्र-जाति का कीड़ा है। परन्तु उसका आकार बर्र के आकार से बहुत छोटा होता है। वह उन हरे रंग की मक्खियों का किस प्रकार नाश करता है, सो भी सुन लीजिए-
ये कीड़े अण्डे देने के समय हरे रंग की मक्खियों को ढूँढ़ते फिरते हैं। मक्खियों को पाकर ये उनमें से एक के ऊपर बैठ जाते हैं। फिर ये उस मक्खी के पेट में अपनी गर्भनली डालकर उसमें अपना अण्डा रख देते हैं। अण्डे के साथ ही एक प्रकार का विषैला रस निकलकर मक्खी के पेट में भर जाता है और दो-चार दिन के बाद ही वह उसे मार डालता है। इस प्रकार मरी हुई मक्खियाँ पेड़ों और पौधों के पत्तों और डालियों पर पड़ी रहती हैं। कुछ समय बाद बर्र-जातीय कीड़े का अण्डा फूट जाता है और उसमें से बच्चा निकलकर उस हरी मक्खी का मांस खाता रहता है। बड़ा होने पर वह उड़ जाता है। इस प्रकार बर्र-जातीय कीड़े प्रतिदिन हज़ारों मक्खियों का नाश किया करते हैं।
प्रकृति-देवी यदि इन मक्खियों की बढ़ती रोकने का ऐसा उपाय न करती, तो इनसे देश-के-देश सत्यानाश हो जाते। सब प्रकार के उभ्दिज्ज और अनुभ्दिज्ज-भोजी प्राणी संसार से चल बसते और यहाँ केवल मक्खियों ही मक्खियों का साम्राज्य हो जाता।
आप अपने देश के टिड्डी-दल ही को देखिए। टिड्डियों का असंख्य समूह जब आता है तब किसानों के होश उड़ जाते हैं। सैंकड़ों कोस तक खेती और बाग़-बग़ीचे सफाचट हो जाते हैं। जहाँ सघन वृक्षों की गहरी छाया देख पड़ती थी, क्षण भर में वहीं सूर्य की किरणों का प्रखर प्रकाश फैल जाता है। पर इनके नाश का भी प्रबन्ध प्रकृति-देवी ने कर रक्खा है। सैंकड़ों प्रकार के पक्षी, सरीसृप आदि इनको अपना आहार बना लेते हैं।