हाँ तुम पुरुष हो अधिकार है तुम्हें
ऊँची आवाज़ में बोलने और आँखें दिखाने का,
मैं औरत हूँ
मिश्री में घुली हुई बोली ही
शोभा देती है मुझे,
रात के अँधेरों के बादशाह तो तुम
बेशक,
शाम ढलने से पहले
घर पहुँच जाना ही
शोभा देता है मुझे,
असफल प्रयत्न अनगिनत तुम्हारे लक्ष्य को सजाते हों
तो ये भी लाज़मी है तुम्हें
हो भी क्यूँ न,
तुम पुरुष हो, अधिकार है तुम्हें।
मुझे कुछ चंद मौके भी बमुश्किल होंगे नसीब
हो भी क्यूँ ना
और भी काम होते हैं घर के
जिनमें भी परिपूर्णता
प्राप्त करनी होगी मुझे।

अनुपमा मिश्रा
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