विधा/शैली: सुपरनैचुरल कॉमेडी
मौत बड़ी ही तवज्जोतलब शय है.. हर किसी का ध्यान इस तरफ़ चाहे-अनचाहे आ ही जाता है, ठीक उसी तरह जैसे मौत भी चाहे-अनचाहे तौर पर आ जाती है। मौत का रंग ओ रूप हमारे नज़दीक हमारी उम्र और हमारी गुज़ारी जा रही ज़िन्दगी के एतबार से बदलता रहता है। मसलन एक बारह-पंद्रह साल के लड़के के लिए मौत का तसव्वुर एक ‘एब्सट्रैक्ट आर्ट’ के तसव्वुर की तरह होता है, वहीं ज़िन्दगी के आख़िरी पड़ाव पर पहुँचे हुए आदमी के लिए ये एक सीधा-सरल सच बन जाता है। माल ओ ज़र से महरूम लोग कहते मिलते हैं कि –”मौत आये तो जान छूटे”। वहीं अमीरों के बीच मौत एक खौफ़ के सिवा और कुछ नहीं। लेकिन सच तो ये है कि हमारी मौत कब हो जाती है, हमें ख़ुद भी पता नहीं चल पाता और फिर जिस्म की मौत का इंतज़ार सबसे लम्बा इंतज़ार मालूम होता है। तभी तो शायर मेला राम ‘वफ़ा’ फरमाते हैं,
“मौत इलाजे-ग़म तो है, मौत का आना सह’ल नहीं,
जान से जाना सह’ल सही जान का जाना सह’ल नहीं”
ब हर हाल, मैं वो क़िस्सा कहने जा रहा हूँ, जो पापा के वसीयतनामे का एक पन्ना ढूँढने के दौरान मेरे साथ गुज़रा। वो ख़ुद कई बरस पहले गुज़र गए लेकिन टैक्स का बिल आज भी उन्हीं के नाम से आता है। मुझे इससे ख़ासी परेशानी पेश आती है। अरे भाई! क्या मरे हुए के आगे मेरी ज़िन्दगी की कोई एहमियत नहीं! दरअसल वसीयतनामा तो उन्होंने मेरे और मेरे छोटे भाई के नाम से बनवाया था, जिसने अपनी शादी मुझ से पहले ही एक बेहद ख़ूबसूरत लड़की से कर ली थी, लेकिन जाने क्या हुआ कि शादी के चौथे साल वो ख़ुद भी ख़ुदा को प्यारा हो गया। इन चार सालों में हमने वसीयत पर कोई चर्चा नहीं किया, क्योंकि हम दोनों ही अच्छे भाई थे। अब इन दोनों सानहे को काफ़ी वक़्त गुज़र गया है। अगले दस बरस में मेरी भी उम्र वो हो सकती है, कि मेरे बच्चे भी मेरे मरने की राह देखें और मुझ से वसीयतनामे की उम्मीद करें। बस इसी चिंता में पड़ कर मैंने वो एक पन्ना ढूँढने की कोशिश की जिसके बिना वसीयतनामा अधूरा है और मैं उसे किसी दूसरे के नाम नहीं कर सकता।
ये मेरी बीवी की दिमाग़ी उपज थी कि पापा की रूह को बुलाया जाए और उनसे वो पन्ना ढूँढने में मदद ली जाए। दो दिन पहले पापा की बरसी गुज़री है। इस मौक़े पर हमने तय किया कि हम एक बढ़िया से रेस्तौरेंट में जाकर पापा के पसंदीदा खाने दबा कर खाएँ। और फिर देखा कि रेस्तौरेंट में ऑफर भी चल रहा था तो, लगे हाथ हमने अपनी पसंदीदा चीज़ें भी खाईं। अरे! अब शादी के इतने साल गुज़र गये हैं.. अब तो चम्मच से खाई जाने वाली चीज़ें भी एक-दूसरे के सामने दोनों हाथों से खायी जा सकती हैं।
यही वो जगह थी जहाँ मेरी बीवी को ‘प्लैनचेट’ का ख़याल आया। मस’अला ये था कि हमने अपने भाई के अंतिम संस्कार के बाद आज तक किसी मेहमान तक को भी नहीं बुलाया था, फिर ये रूह को दावत देने की बात थी। मतलब, कैसे इन्तज़ामात की ज़रूरत पड़ेगी, मुन्तज़म को अगर कुछ बुरा लग गया तो हमारा क्या हश्र होगा, क्योंकि अब तो कानून भी उनका कुछ नहीं उखाड़ सकती (बे अदब इस्तेयारे के लिए मुआफ़ी की गुजारिश है, आप ख़ुद ही समझ सकते हैं कानून का मुआमला है).. खैर! बाप तो बाप होता है। हमने इस कारगुज़ारी को अंजाम देने के लिए एक ‘ओइजा बोर्ड’ का इंतज़ाम किया। मुझे डर था कि किराए के ‘ओइजा बोर्ड’ से पापा को बुलाने पर पता नहीं कौन आ जाए? और पता नहीं किस-किस ने, किस-किस को अपने कैसे-कैसे काम के लिए इसी ‘ओइजा-बोर्ड’ के इस्तेमाल से बुलाया होगा।
खैर! आधी रात को हम तीनों ने पापा की रूह को बुलाना तय किया। हमने इसके लिए अपना बेडरूम इस्तेमाल करने की ठानी, जिसकी वजह ये थी कि हुकूमत कम अज़ कम वहाँ हमें अपनी तरह से जीने की आज़ादी दे रही है। अब ज़रूरत थी वहाँ सही माहौल तैयार करने की.. सो हमने सबसे पहले माँ की तस्वीर ड्राइंग रूम से अपने बेडरूम में लाके लगा दी। मेरी बीवी कुछ इस तरह से सजने-सँवरने लगी कि मानों उसकी शादी का पहला दिन हो, इत्र भी वही कि वो दिन याद आ गया जब पहली बार हमने उसे क़रीब से देखा था। अब हम तीनों ‘ओइजा’ के आगे बैठ गये। बंटी पहली बार अपने दादा जी से मिलता, तो वो भी काफ़ी ख़ुश नज़र आ रहा था। हमने जैसे ही ओइजा बोर्ड पर कारगुजारी शुरू की कि बहुत जल्द घर के परदे हिलने लगे, हवाएँ चलने लगीं, जैसे कि किसी फ्लॉप बॉलीवुड फ़िल्म का मंज़र हो। जब सब शांत हुआ तो बीवी ने बहुत धीमी आवाज़ में पूछा-
“आप सब यहाँ कितने हैं?”
“मैं अकेली ही हूँ मेम साहेब.. सब काम अकेली ही कर देगी मैं।”
शायद कोई ग़लत रूह कमरे में आ गई थी। हमने उसे प्यार से वापस भेजने की कोशिश की।
“आपका नाम क्या है?”
“मेरे को सब लक्ष्मी बुलाते हैं। बाजू वाले मेहरा के घर में मैंने काम किया चार महीने.. एक महीने का पैसा भी मार लिया मेरा.. ठरकी साला!”
मेरी बीवी का चेहरा ख़ुशी से चमकने लगा, ये काम वाली बाई की रूह थी, उसने आगे पूछा-
“ये बताओ! मेरे घर में कपड़े धोने और खाना पकाने का कितना लोगी?”
अरे अब ये क्या खुराफ़ात! भला रूह के हाथों का बना मुर्ग़ा एक ज़िन्दा आदमी के हलक से कैसे उतरेगा! मैंने उसे ध्यान कराया कि कामवाली बाई से ज़ियादा ज़रूरी अभी वसीयतनामे का वो पन्ना है। लेकिन आख़िरी समय तक उसने उसके महीने की तनख्वाह भी तय कर दी और यहाँ तक कि नसीहत दे दी कि वो बिला-ताख़ीर रोज़ आ जाया करे।
हमने फिर से पापा की रूह को बुलाने की कोशिश की। फिर वही हवा, वही भंसाली के उड़ते परदे और वही बॉलीवुड। हम तीनों को फिर से महसूस होने लगा कि कमरे में रूह आ चुकी है। मैंने धीमी आवाज़ में पूछा-
“क्या इस कमरे में कोई रूह है?”
कोई जवाब नहीं… मैंने और धीमे लहजे में पूछा-
“क्या इस कमरे में किसी आली जनाब की रूह है?”
इस बार भी कोई जवाब नहीं.. फिर मेरी बीवी ने पूछा-
“अरे अब बता भी दीजिये।”
और अगले ही पल जैसे कोई सपने से उठा हो, रूह ने चुप्पी तोड़ी-
“पम्मी तुम? तुम यहाँ भईया के साथ? बेडरूम में?”
जी हाँ! मैंने पहले ही बताया था कि मेरे भाई, अंकुश ने एक ‘बेहद ख़ूबसूरत’ लड़की से शादी की थी। हम दोनों सन्न रह गए। मुझे शर्म आई कि भाई से नज़रें कैसे मिलाएँ! लेकिन अब जो है, सो है।
“तुम… भईया… मेरे मरने के बाद तुम दोनों ने…!”
ये अलग बवाल था। अब मैं उसे कैसे बताऊँ कि ज़िन्दगी भूलने का दूसरा नाम है और उसकी बीवी, यानि अब मेरी बीवी बहुत अच्छे से ज़िन्दगी गुज़ार रही है। अब तो उसे मुझ से ज़ियादा तीसरी बातें याद रहती हैं, ठीक वैसे ही जैसे अक्सर मैं उसकी फ़रमाइशें भूल जाता हूँ (या भूलने की शग़ल इख़्तियार करता रहता हूँ)। इससे पहले कि मैं कुछ कहता पम्मी ने झट से कहा-
“अंकुश, तुम्हारा रंग तो काफ़ी साफ़ हो गया है, तुम्हारी दुनिया का मौसम काफ़ी बेहतर लगता है।”
“चाचू, मम्मी बताती है कि आप बहुत काले थे, पर आप तो गोरे हो।”- बच्चे ने कहा।
“चाचू! मैं इसका चाचू? क्या हो रहा है ये?” – अंकुश ने ग़ुस्से में कहा और कमरे में रखी दो चार शीशे की चीज़ें टूट गईं।
पम्मी घबरा गई। उसने हालात सम्भालते हुए कहा-
“हम लोग नयी जगह पर रहते हैं, और नहीं चाहते कि हमारी बातें यहाँ के लोग जानें, सो हमने बंटी को सिखाया कि वो तुम्हारे भईया को पापा कहा करे।”
“पर इसका नाम तो रौनक़ था न!”
“हाँ पर वो हमने एफिडेविट करा कर…”
मैंने अब तक अंकुश की तरफ़ नज़र नहीं की थी। करना भी नहीं चाहता था। भाड़ में जाए वसीयतनामा। लेकिन अब आग लग चुकी थी। उसने ख़ुद मेरी तरफ़ अपना रुख़ करते हुए सवाल किया-
“क्यों भईया! यही सब दिखाने के लिए मुझे बुलाया गया था?”
“मैं तुझे नहीं बुला रहा था भाई।”
“वही तो, अब मुझे क्यों बुलाएँगे…”
“अरे वो बात नहीं है! मैं पापा को बुला रहा था।”
“वो नहीं आएँगे!”
“क्यों?”
“वहाँ अनशन पर बैठे हैं।”
“उफ़! वहाँ भी राजनीति से चैन नहीं, किसके ख़िलाफ़?”
“और किसके कांग्रेस के।”
“कांग्रेस वहाँ अब तक सत्ता में है भी?”
“अरे नहीं…”
“फिर?”
“अरे नेहरू मोदी को काम नहीं करने दे रहा! वैसे आपने क्यों बुलाया था पापा को?”
“तुझे पापा का वसीयतनामा याद है? अपने पुराने घर का? वहाँ पर टैक्स बिल अब तक पापा के नाम से आ रहा है।”
“तो?”
“उसे अपने नाम कराना चाहता हूँ। बाद में मेरे… हमारे बंटी और…”
“और?”
“तुम्हारी… हमारी पम्मी पेट से है, बेटी की उम्मीद है, इन दोनों के काम आएँगे।”
“पर क्या दिक्क़त है उस वसीयतनामे में?”
“उसका एक पन्ना ग़ायब है। वकील कह रहे हैं कि उसके बिना क़ानूनी काम पूरे नहीं हो सकेंगे।”
“वो तो पापा ही बता सकते हैं, उस पन्ने के बारे में।”
“तभी तो उनको बुलाया था।”
“तो वो अनशन पर हैं न! मैं जाता हूँ अनशन ख़त्म होते ही फिर से बुला लेना।”
“अरे पर मुझे पता कैसे लगेगा?”
“आसान है, जब यहाँ अच्छे दिन आने लगे तो समझना नेहरू-मोदी का लफड़ा ख़त्म है, बुला लेना। पर अच्छे दिन से पहले लगता नहीं कोई गुंजाइश है, आप को पता है पापा का… पर आपने पम्मी से…? अपने छोटे भाई की बीवी से?…”
“अबे इतने स्वार्थी मत बनो! पम्मी क्या ज़िन्दगी भर यूँ ही रहती?”
“आप से बात करना ही बेकार है।”
फिर से वही तेज़ हवा, बॉलीवुड के उड़ते परदे और एक पल को सब बोझिल होता हुआ। मैं ज़ोर से चिल्लाया-
“अरे पर पापा को भेज देना!”
कमरे में सब कुछ इधर-उधर बिखरते हुए एक आवाज़ गूँजी-
“अच्छे दिन आने दो, पापा भी आ जायेंगे।”
और इस तरह से वसीयतनामे का काम अब भी अधूरा है। लेकिन इस एक्स्पेरिमेंट से मेरी बीवी को एक फ़ायदा ये हुआ कि अब वो सुबह-शाम प्लैनचेट करके काम वाली बाई लक्ष्मी को बुलाकर सारे काम बहुत सस्ते में करवाती है। सस्ते में यानि वो काम वाली बाई काम करने के एवज़ में मेरे लैंडलार्ड का दस बूँद खून चूस लेती है। मुझे इसका कोई डर नहीं… पम्मी आरामपसंद होने के साथ-साथ मुझ से प्यार भी करती है। मैं भी एक भूत के हाथ का बना खाना खा रहा हूँ जो पम्मी के हाथों से बने खाने से ज़ियादा ज़ायक़ेदार है।
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