ऊपर से काली
भीतर से अपने चमकते दाँतों
की तरह शान्त धवल होती हैं वे
वे जब हँसती हैं फेनिल दूध-सी
निश्छल हँसी
तब झर-झराकर झरते हैं
पहाड़ की कोख में मीठे पानी के सोते
जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ
जब नाचती हैं क़तारबद्ध
माँदल की थाप पर
आ जाता तब असमय वसन्त
वे जब खेतों में
फ़सलों को रोपती-काटती हुईं
गाती हैं गीत
भूल जाती हैं ज़िन्दगी के दर्द
ऐसा कहा गया है
किसने कहे हैं उनके परिचय में
इतने बड़े-बड़े झूठ?
किसने?
निश्चय ही वह हमारी जमात का
खाया-पीया आदमी होगा
सच्चाई को धुन्ध में लपेटता
एक निर्लज्ज सौदागर
ज़रूर वह शब्दों से धोखा करता हुआ
कोई कवि होगा
मस्तिष्क से अपाहिज!
निर्मला पुतुल की कविता 'उतनी दूर मत ब्याहना बाबा'