“मुसलमानों, भारत छोड़ो!”
“बाबर की औलादों, भारत छोड़ो!”
“गर भारत में रहना है, तो वन्दे मातरम् कहना है!”
“देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को!”
यही नारे थे जो सड़कों पर गूंज रहे थे। इसी तरह की बातें थीं जो सोशल मीडिया पर हावी हो रही थीं और टीवी चैनलों पर भी ख़ूब आम हो रही थीं। बड़े-बड़े नेता थे जो अपने बयानों के द्वारा मुसलमानों को पलायन कर जाने को कह रहे थे। गाय के नाम पर हत्याएं भी आम होती जा रही थीं। भीड़ कभी भी, किसी पर भी टूटकर हमला करके जान से मार दे रही थी। पूरे मुल्क में एक डर का माहौल बन गया था, या यूं कहिए कि बनाया गया था।
इस पूरे मुस्लिम विरोधी माहौल ने मेरा मेरे मुल्क से और मुल्क में रहने वालों से मेरा रिश्ता तोड़ दिया था, मैं कब अपने ही मुल्क में पराया हो गया पता ही नहीं चला। लेकिन मेरे जीवन में एक ऐसी घटना घटित हुई जिसने देश की अद्भुतता पर मेरा विश्वास बहाल कर दिया।
यह कहानी है डर में उम्मीद की, अविश्वास में विश्वास की, परायेपन से अपनों की तरफ़ लौटने की।
मैं एक नॉन रेसीडेंट इंडियन (एनआरआई) हूँ और मैं एक एनआरआई जानबूझकर नहीं हूँ बल्कि अपने मुल्क में नौकरी नहीं मिली तो मजबूरी में दूसरे मुल्क में रोज़ी-रोटी के लिए जाना पड़ा। मुल्क से दूर होने की वजह से मैं सोशल मीडिया पर अच्छा ख़ासा वक़्त बिताता हूँ, इसीलिए नफ़रत फ़ैलाने वाली ख़बरें अक्सर मेरी नज़र से गुज़रती हैं। पिछले कुछ सालों से यह सब-कुछ बहुत ज़्यादा और लगातार पढ़कर मुझे लगने लगा कि इस वक़्त मुल्क में जो चल रहा है, वह ग़लत है और सभी हिंदुओं के दिल में मुसलमानों के लिए नफ़रत पैदा हो गई है और वे चाहते हैं कि मुसलमानों को मार-पीट कर मुल्क से बाहर कर दें। कुछ इसी तरह के विचार बन गए थे मेरे मुल्क से बाहर रहते हुए!
2017 में हमारा घर यानि अपने मुल्क आना हुआ। हमने हर जगह बहुत बच-बचाकर सफ़र किया, चाहे ट्रेन हो या बस हो या फ़िर ओला वगैरह! सिर्फ़ इसीलिए ताकि कोई हिन्दू हमें नुक्सान न पहुंचा दे या किसी को कुछ ग़लत करने का मौक़ा न मिल जाए। मैं अकेला होता तो शायद न डरता लेकिन मेरे साथ मेरी शरीक-ए-हयात (पत्नी) और दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत और मुझे सबसे अज़ीज़ मेरी दो प्यारी बेटियां थीं। एक डर सा लगा हुआ था कि कहीं कोई नाम न पूछ ले या किसी का फ़ोन आने पर मेरे मुंह से अस्सलामुअलैकुम न सुन ले। मेरे मां-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी सब इसी मुल्क की मिट्टी में दफ़्न हैं। मैं ख़ुद इसी मुल्क की मिट्टी में खेल-कूद कर बड़ा हुआ हूँ। लेकिन जाने क्यूं, अब डर लग रहा था।
हम तीन भाई हैं। ख़ानदानी विरासत कुछ ज़्यादा नहीं थी। जो बचा खुचा एक छोटा सा मकान था, उसमें यह मुमकिन नहीं था कि तीनों भाइयों का परिवार सहित गुज़ारा हो पाए। इसीलिए मैंने और मेरी पत्नी ने मकान ढूंढने शुरू किए। हमने बहुत से हिन्दू इलाकों में काफ़ी मकान और ज़मीनें देखीं, जो हमारे बजट में थीं, लेकिन कुछ ख़ास पसंद नहीं आईं क्योंकि मेरी पत्नी की सख़्त हिदायत थी कि मकान या ज़मीन किसी मुस्लिम इलाके में ही ली जाए। मैं उसकी बात को नज़रंदाज़ भी नहीं कर सकता था क्योंकि मैं जानता था कि वह बच्चियों के बारे में सोचकर ही ऐसा कह रही है। मकान तो नहीं मिला लेकिन हम ब्रोकर से बोल आए कि किसी पढ़े-लिखे मुस्लिम इलाके में कोई जगह मिले तो वह हमें बताए।
हमारी फ्लाइट इंदिरा गांधी एयरपोर्ट से रात आठ बजे की थी। दिल्ली में रहने वाली बहन ने सुझाव दिया कि भाई यहां कोई भरोसा नहीं है, वैसे भी ऑफिस की छुट्टी का टाइम है इसीलिए जाम भी ज़रूर मिलेगा। तो बेहतर यही है कि हम समय से पहले निकलें। इसीलिए हम तीन बजे के क़रीब यह सोचकर निकले कि दो-तीन घंटे पहले आराम से एयरपोर्ट पहुंच जाएंगे। हमारा घर से निकलना था कि हमारे साथ-साथ बारिश भी हो ली और जब हम जेएनयू के क़रीब फ्लाईओवर पर पहुंचे तो बारिश पूरी दिल्ली पर क़ाबिज़ हो चुकी थी, जिस वजह से काफ़ी जाम लग गया था। हमारा अनुमान था कि लगभग एक-आधे घंटे में जाम खुल जाएगा लेकिन जब एक घंटे तक गाड़ियां टस से मस न हुईं तो यह बिल्कुल तय हो गया कि इस तरह तो हमारी फ्लाइट छूट जाएगी। मेरी बहन जो मुझे छोड़ने साथ आई थी, उसने सुझाव दिया कि हम अपना सामान उतार लें और पैदल चलकर फ्लाईओवर की दूसरी तरफ़ पहुंचकर कोई कैब वगैरह देखें। लेकिन यह इतना आसान नहीं था। हमारे पास छः सात बड़े-बड़े बैग थे। अब क्या किया जाए? मुल्क की हर चीज़ वहां नहीं ले जा सकते थे। एक बैग में याद के तौर पर रखे गए मसाले और अचार वगैरह ही थे।
मैं, मेरी बच्चियां और काले नक़ाब में तीन औरतें जिनमें एक मेरी पत्नी और दो बहनें थीं, जैसे-तैसे बैग खींचकर दूसरी तरफ़ ले गए और इंतज़ार करने लगे कि कोई गाड़ी आए तो लिफ्ट ले ली जाए।
हम लगातार मदद के लिए हाथ दे रहे थे लेकिन कोई गाड़ी रोकने को तैयार नहीं था। तभी एक इनोवा हमारे क़रीब आई। ड्राइवर का हुलिया देखकर मुझे कुछ अजीब लगा। यह वही हुलिया था जो काफ़ी दिनों से मैं फ़ेसबुक पर देख रहा था। गले में पीला हार, गले में भगवा गमछा पहने, माथे पर तिलक लगाये, मुंह पर चोट का कटा निशान। गाड़ी का जायज़ा लिया तो पाया कि उसकी सीट के ठीक सामने एक मूर्ति लगी हुई है, काफ़ी सारी मालाएं लटक रही हैं और बड़े-बड़े अक्षरों में शुभ-लाभ लिखा है। शुरू में हमें कुछ असहज लगा। दिल में एक डर सा लगने लगा। सोचने लगे कि इस आदमी की गाड़ी में बैठना ठीक होगा या नहीं। मगर उसने यह बोलकर मेरा डर कुछ कम कर दिया “भैय्या क्या समस्या है, बताइए आप। हमसे जो बनेगा हम मदद करेंगे।” मैंने तुरंत उसे पूरी व्यथा बताई। वह अपनी गाड़ी से उतरा और सामान रखने में हमारी मदद करने लगा। सामान रखते-रखते ही वह मेरी बहनों से बोला, “दीदी आप बैठिए, हम सामान रख देंगे।” उसका सहायता भाव और स्नेह देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई।
घूम-घाम कर मेरे दिमाग़ में बस यही चल रहा था कि क्या करें, कैसे समय पर एयरपोर्ट पहुंचा जाए। मैं बार-बार अपना मोबाइल खोलने और बन्द करने में लगा हुआ था कि उसने मेरी परेशानी समझते हुए कहा, “भैय्या आप बिल्कुल टेंशन मत लीजिए। आपके लिए सबसे बेहतर है कि मैं आपको पास ही मेट्रो स्टेशन पर छोड़ दूं वहां से आप एयरपोर्ट जाएं, क्योंकि बारिश की वजह से कहा नहीं जा सकता कि कहां जाम मिल जाए!”
यह कहकर उसने गाड़ी स्टार्ट की। जेब से एक पुड़िया निकाल कर फांकी और गाना (कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना!) प्ले किया। हमें दिलासा देने लगा कि “आप घबराएं नहीं, भगवान ने चाहा तो आप समय से एअरपोर्ट पहुँच जाएंगे।” मैंने सोचा कि उससे और बात करूं, नाम वगैरह पूछूं लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया। दो कारण थे। एक तो मेरे दिमाग़ में फ्लाइट का टाइम दौड़ रहा था और दूसरा सोशल मीडिया पर पढ़ी हुई बातें भीं बार-बार याद आ रही थीं। मैंने कई बार अपने मोबाइल पर लोकेशन भी ट्रेस की क्योंकि मुझे डर था कि यह भगवाधारी मुझे कहीं और न पहुंचा दे।
आख़िरकार हम हौज़ ख़ास मेट्रो स्टेशन पहुंचे। ड्राइवर ने गाड़ी पार्क की और गाना बंद किया। उसने हमारा सामान भी स्टेशन तक पहुंचाने में मदद की। मैंने उसे गले लगाकर उसका धन्यवाद किया। उसे कुछ पैसे देने चाहे तो वह मना करने लगा। मेरे काफ़ी इसरार करने पर कि वह यह पैसे मेरी तरफ़ से शुक्राना समझ कर रख ले, वह पैसे लेने पर राज़ी हुआ। नाम पूछने पर उसने अपना नाम ‘मुन्नू सिंह’ बताया। इस तरह मैंने भाई मुन्नू सिंह और अपने मुल्क से विदा ली।
रास्ते भर मैं यही सोचता रहा कि मुझे बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि वह तिलकधारी, भगवाधारी हिंदू मेरी मदद करेगा लेकिन उसने मेरे इस अंधविश्वास की ऐनक को उतारकर हिंदुस्तान की सभ्यता और संस्कृति का दर्शन कराया। और कितनी ही यादों पर से ग़ुबार हट गया- जब मेरे प्यारे अब्बू जान से उनके तिलकधारी, भगवाधारी हिंदू दोस्त मिलने आया करते थे, वे साथ में खाते-पीते और बतियाते थे, विभिन्न विषयों पर चर्चा करते थे।
उस घटना से मैंने सीखा कि कितनी आसानी से हम फ़ेसबुक और अन्य सोशल मीडिया के माध्यमों पर परोसी जा रही नफ़रत की वजह से एक पूरे समुदाय के बारे में ग़लत धारणा क़ायम कर लेते हैं, जो बिल्कुल भी सच नहीं है। मैं जब अपने मुल्क गया था तो मन में शंका और डर लेकर गया था, मगर जब मैं वापस लौटा तो मुन्नू सिंह जैसे लोगों की वजह से अपने मुल्क की सभ्यता और संस्कृति पर विश्वास मज़बूत करके लौटा।
ऐसा है मेरा देश और ऐसे ही हैं मेरे देश के लोग। सच्चाई यह है कि एक बड़ा तबका ऐसा है जिसके अंदर इंसानियत और भाईचारगी मौजूद है। सब लोग बिल्कुल भी वैसे नहीं हैं, जैसे सोशल मीडिया पर दिखाए जाते हैं या जो राजनीतिक दलों द्वारा भटकाए जाते हैं। असली हिंदुस्तान बहुत अलग है और असली हिंदुस्तान पूरी दुनिया में ‘अनेकता में एकता’ की वजह से ही जाना जाता है। जहां हिंदू और मुसलमान बिल्कुल उसी तरह हैं, जिस तरह बचपन में वह बूढ़ा फ़कीर गली-गली बकता रहता था – “ह से बना हिंदू और म से बना मुसलमान, दोनों मिलकर हम बने, और हमसे हिंदुस्तान बना।”