अनुपमा झा की कविता ‘अजब ग़ज़ब औरतें’ | ‘Ajab Ghazab Auratein’, a poem by Anupama Jha
अजब ग़ज़ब होती हैं
गाँव वाली कुछ औरतें!
सभ्यताओं, परम्पराओं की बेड़ियों में भी,
निकाल लेती हैं कुछ जुगाड़
और हो लेती हैं ख़ुश…
ख़्वाहिशों की पोटली में
लगा क़िस्मत की गाँठ
कर लेती हैं मन में मन से
कुछ अपनी साँठ-गाँठ…
फ़िल्मी गाने गुनगुनाने से
मानी जाती हैं जो असभ्य
ज़ोर-ज़ोर से गा लेती हैं
भक्ति भजन के गीत
उन्हीं फ़िल्मी धुनों पर..
और कर लेती हैं
कुछ मनमानी!
देहरी से बाहर निकलने पर
लगता है जिनपर उच्छृंखलता का तमग़ा
ईश्वर की छत्रछाया में
ढूँढ लेती हैं वो
देहरी से बाहर की दुनिया!
मंदिरों में घूम आती हैं,
मन्नत के धागे बाँध आती हैं,
वापस आकर खोलने को…
अचार, पापड़, बड़ियों को
धूप दिखाती, सम्भाल लेती हैं
साल-भर के लिए
अपने मन की तरह बन्द कर लेती हैं
फफूँद लगने से बचा लेती हैं।
लगा आती हैं गुहार
ईश्वर के सामने धूप, धान, बारिश का
अपने सूखे पड़े मन की ख़्वाहिशों का
दूर शहर में कमाते पति की आयु का।
बहुत अजब ग़ज़ब लगती हैं
मुझे ये औरतें
नहीं भूलतीं ये लगाना
सावन में मेहँदी
रोज़ भरना माँग में सिंदूर
और लगाना माथे पर बिंदी
बस अपने अस्तिव को भूल
सब याद रखती हैं
कुछ नहीं भूलतीं ये अजब ग़ज़ब औरतें
अपनी ज़िन्दगी को अपने तरीक़े से
जीने का जुगाड़ लगातीं
ये औरतें…
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