लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाजार में मकान था। नीचे की दुकानों से 100 रुपया मासिक के करीब किराया उतर आता था। कच्चे-बच्चे अभी थे नहीं, सिर्फ दो प्राणी का खर्च था। अच्छा खाते थे, अच्छा पहनते थे। पर ढाई सौ रुपए तो एक साथ कभी आँख सेंकने के लिए भी न मिलते थे।
इसलिए जब उनकी पत्नी ने एक दिन यकायक ढाई सौ रुपए की माँग पेश की तब उनका जी एक बार जोर से सनसनाया और फिर बैठ गया। जान पड़ा कि कोई बुल्ला है जो बिलाने जा रहा है। उनकी यह दशा देखकर उनकी पत्नी ने कहा, “डरिए मत, आप देने में असमर्थ हों तो मैं अपने भाई से माँग लूँ।”
लाला झाऊलाल इस मीठी मार से तिलमिला उठे। उन्होंने किंचित रोष के साथ कहा, “अजी हटो! ढाई सौ रुपए के लिए भाई से भीख माँगोगी? मुझसे ले लेना।”
“लेकिन मुझे इसी ज़िन्दगी में चाहिए।”
“अजी इसी सप्ताह में ले लेना।”
“सप्ताह से आपका तात्पर्य सात दिन से है या सात वर्ष से?”
लाल झाऊलाल ने रोब के साथ खड़े होते हुए कहा, “आज से सातवें दिन मुझसे ढाई सौ रुपए ले लेना।”
“मर्द की एक बात!”
“हाँ, जी हाँ! मर्द की एक बात!”
लेकिन जब चार दिन ज्यों-त्यों में यों ही बीत गए और रुपयों का कोई प्रबंध न हो सका तब उन्हें चिंता होने लगी। प्रश्न अपनी प्रतिष्ठा का था, अपने ही घर में अपनी साख का था। देने का पक्का वादा करके अब अगर न दे सके तो अपने मन में वह क्या सोचेगी? उसकी नज़रों में उनका क्या मूल्य रह जाएगा? अपनी वाहवाही की सैकड़ों गाथाएं उसे सुना चुके थे। अब जो एक काम पड़ा तो चारों खाने चित हो रहे? यह पहली ही बार उसने मुंह खोलकर कुछ रुपयों का सवाल किया था। इस समय अगर वे दुम दबाकर निकल भागते हैं तो फिर उसे क्या मुंह दिखाएंगे? ‘मर्द की एक बात’- यह उसका फिकरा उनके कानों में गूंज-गूंजकर फिर गूंज उठता था।
खैर, एक दिन और बीता। पाचवें दिन घबराकर उन्होंने पं. बिलवासी मिश्र को अपनी विपदा सुनाई। संयोग कुछ ऐसा बिगड़ा था कि बिलवासी जी भी उस समय बिलकुल खुक्ख थे। उन्होंने कहा कि मेरे पास हैं तो नहीं पर मैं कहीं से मांग-जांचकर लाने की कोशिश करूंगा, और अगर मिल गया तो कल शाम को तुमसे मकान पर मिलूंगा।
यह शाम आज थी। हफ्ते का अंतिम दिन। कल ढाई सौ रुपया या तो गिन देना है या सारी हेकड़ी से हाथ धोना है। यह सच है कि कल रुपया न पाने पर उनकी स्त्री डामल-फांसी न कर देगी – केवल ज़रा-सा हंस देगी। पर वह कैसी हंसी होगी! इस हंसी की कल्पना मात्र से लाला झाऊलाल की अंतरात्मा में मरोड़ पैदा हो जाता था।
अभी पं. बिलवासी मिश्र भी नहीं आए। आज ही शाम को उनके आने की बात थी। उन्हीं का भरोसा था। यदि न आए तो? या कहीं रुपए का प्रबंध वे न कर सके तो?
इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए लाल झाऊलाल धुर छत पर टहल रहे थे। कुछ प्यास मालूम पड़ी। उन्होंने नौकर को आवाज़ दी। नौकर नहीं था। खुद उनकी पत्नी पानी लेकर आई। आप जानते ही हैं कि हिंदू समाज में स्त्रियों की कैसी शोचनीय अवस्था है! पति नालायक को प्यास लगती है तो स्त्री बेचारी को पानी लेकर हाज़िर होना पड़ता है।
वे पानी तो ज़रूर लाईं पर गिलास लाना भूल गई थीं। केवल लोटे में पानी लिए हुए वे प्रकट हुईं। फिर लोटा भी संयोग से वह जो अपनी बेढंगी सूरत के कारण लाला झाऊलाल को सदा नापसंद था। था तो नया, साल ही दो साल का बना, पर कुछ ऐसी गढ़न उस लोटे की थी कि जैसे उसका बाप डमरू और माँ चिलमची रही हो।
लाला झाऊलाल ने लोटा ले लिया, वे कुछ बोले नहीं, अपनी पत्नी का वे अदब मानते थे। मानना ही चाहिए। इसी को सभ्यता कहते हैं। जो पति अपनी पत्नी की पत्नी नहीं हुआ वह पति कैसा! फिर उन्होंने यह भी सोचा होगा कि लोटे में पानी हो तो तब भी गनीमत है – अभी अगर चूं कर देता हूँ तो बालटी में जब भोजन मिलेगा तब क्या करना बाकी रह जाएगा।
लाला झाऊलाल अपना गुस्सा पीकर पानी पीने लगे। उस समय वे छत की मुंडेर के पास खड़े थे। जिन बुजुर्गों ने पानी पीने के संबंध में यह नियम बनाए थे कि खड़े-खड़े पानी न पियो, उन्होंने पता नहीं कभी यह भी नियम बनाया था या नहीं कि छत की मुंडेर के पास खड़े होकर पानी न पियो। जान पड़ता है इस महत्वपूर्ण विषय पर उन लोगों ने कुछ नहीं कहा है।
इसलिए लाला झाऊलाल ने कोई बुराई नहीं की और वे छत की मुंडेर के पास खड़े होकर पानी पीने लगे। पर मुश्किल से दो-एक घूंट वे पी पाए होंगे कि न जाने कैसे उनका हाथ हिल उठा और लोटा हाथ से छूट पड़ा।
लोटे ने न दाहिने देखा न बाएं, वह नीचे गली की ओर चल पड़ा। अपने वेग में उल्का को लजाता हुआ वह आंखों से ओझल हो गया। किसी जमाने में न्यूटन नाम के किसी खुराफाती ने पृथ्वी की आकर्षण शक्ति नाम की एक चीज ईजाद की थी। कहना न होगा कि यह सारी शक्ति इस लोटे के पक्ष में थी।
लाला झाऊलाल को काटो तो बदन में खून नहीं। ठठेरी बाजार ऐसी चलती हुई गली में, ऊंचे तिमंजिले से, भरे हुए लोटे का गिरना हंसी खेल नहीं है। यह लोटा न जाने किस अधिकारी के खोपड़े पर काशी-वास का संदेश लेकर पहुंचेगा। कुछ हुआ भी ऐसा ही। गली में जोर का हल्ला उठा। लाला झाऊलाल जब तक दौड़कर नीचे उतरे तब तक भारी भीड़ उनके आंगन में घुस आई।
लाला झाऊलाल ने देखा कि इस भीड़ में प्रधान पात्र एक अंग्रेज है जो नखशिख से भीगा हुआ है और जो अपने एक पैर को हाथ से सहलाता हुआ दूसरे पर नाच रहा है। उसी के पास उस अपराधी लोटे को देखकर लाला झाऊलाल जी ने फौरन दो और दो जोड़कर स्थिति को समझ लिया। पूरा विवरण तो उन्हें पीछे प्राप्त हुआ।
हुआ यह कि गली में गिरने से पूर्व लोटा एक दुकान के सायबान से टकरा गया। वहाँ टकराकर उस दुकान पर खड़े उस अंग्रेज को उसने सांगोपांग स्नान कराया और फिर उसी के बूट पर जा गिरा।
उस अंग्रेज को जब मालूम हुआ कि लाला झाऊलाल ही उस लोटे के मालिक हैं तब उसने केवल एक काम किया। अपने मुंह को उसने खोलकर खुला छोड़ दिया। लाला झाऊलाल को आज ही यह मालूम हुआ कि अंग्रेजी भाषा में गालियों का ऐसा प्रकांड कोश है।
इसी समय पं. बिलवासी मिश्र भीड़ को चीरते हुए आंगन में आते दिखाई पड़े। उन्होंने आते ही पहला काम यह किया कि एक कुर्सी आंगन में रखकर उन्होंने साहब से कहा, “आपके पैर में शायद कुछ चोट आ गई है। आप आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए।” दूसरा एक ज़रूरी काम यह किया कि जितने आदमी आंगन में घुस आए थे सबको निकाल बाहर किया।
साहब बिलवासी जी को धन्यवाद देते हुए बैठे और लाला झाऊलाल की ओर इशारा करके बोले, “आप इस शख्स को जानते हैं?”
“बिल्कुल नहीं और मैं ऐसे आदमी को जानना भी नहीं चाहता जो निरीह राह-चलतों पर लोटे से वार करे।”
“मेरी समझ में, ही इज ए डेंजरस ल्यूनाटिक!”
(यानी, यह एक खतरनाक पागल है)
“नहीं, मेरी समझ में, ही इज ए डेंजरस क्रिमिनल!”
(नहीं, यह एक खतरनाक मुजरिम है।)
परमात्मा ने लाला झाऊलाल की आँखों को इस समय कहीं देखने के साथ खाने की भी शक्ति दी होती तो यह निश्चय है कि अब तक बिलवासी जी को वे अपनी आँखों से खा चुके होते। वे कुछ समझ नहीं पाते थे कि बिलवासी जी को इस समय हो क्या गया है।
साहब ने बिलवासी जी से पूछा, “तो अब क्या करना चाहिए?”
“पुलिस में इस मामले की रिपोर्ट कर दीजिए, जिससे यह आदमी फौरन हिरासत में ले लिया जाए।”
“पुलिस स्टेशन है कहाँ?”
“पास ही है, चलिए मैं बता दूँ।”
“चलिए।”
“अभी चला। आपकी इजाजत हो तो पहले मैं इस लोटे को इस आदमी से खरीद लूँ। क्यों जी! बेचोगे? मैं पचास रुपए तक इसका दाम दे सकता हूँ।”
लाला झाऊलाल तो चुप रहे पर साहब ने पूछा, “इस रद्दी से लोटे का आप पचास रुपए दाम क्यों दे रहे हैं?”
“आप इस लोटे को रद्दी-सा बताते हैं? आश्चर्य है! मैं तो आपको एक विज्ञ और सुशिक्षित आदमी समझता था।”
“आखिर बात क्या है, कुछ बताइए भी?”
“यह जनाब! एक ऐतिहासिक लोटा जान पड़ता है। मुझे पूरा विश्वास है कि यह वह प्रसिद्ध अकबरी लोटा है, जिसकी तलाश में संसार भर के म्यूजियम परेशान हैं।”
“यह बात?”
“जी हाँ जनाब! सोलहवीं शताब्दी की बात है। बादशाह हुमायूं शेरशाह से हारकर भागा था और सिंध के रेगिस्तान में मारा-मारा फिर रहा था। एक अवसर पर प्यास से उसकी जान निकल रही थी। उस समय एक ब्राह्मण ने इसी लोटे से पानी पिलाकर उसकी जान बचाई थी। हुमायूं के बाद जब अकबर दिल्लीश्वर हुआ तब उसने उस ब्राह्मण का पता लगाकर उससे इस लोटे को ले लिया और इसके बदले में उसे इसी प्रकार के दस सोने के लोटे प्रदान किए। यह लोटा सम्राट अकबर को बहुत प्यारा था। इसी से इसका नाम अकबरी लोटा पड़ा, वह बराबर इसी से वजू करता था। सन 57 तक इसके शाही घराने में ही रहने का पता है पर इसके बाद लापता हो गया। कलकत्ते के म्यूजियम में इसका प्लास्टर का मॉडेल रखा हुआ है। पता नहीं यह लोटा इस आदमी के पास कैसे आया। म्यूजियम वालों को पता चले तो फैंसी दाम देकर खरीद ले जाएँ।”
इस विवरण को सुनते-सुनते साहब की आँखों पर लोभ और आश्चर्य का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे कौड़ी के आकार से बढ़कर पकौड़ी के आकार के हो गए। उसने बिलवासी जी से पूछा, “तो आप इस लोटे को लेकर क्या करिएगा?”
“मुझे पुरानी और ऐतिहासिक चीजों का संग्रह करने का शौक है।”
“मुझे भी पुरानी और ऐतिहासिक चीजों का संग्रह करने का शौक है। जिस समय यह लोटा मेरे ऊपर गिरा उस समय मैं यही कर रहा था। उस दुकान पर से पीतल की कुछ पुरानी मूर्तियां खरीद रहा था।”
“जो कुछ हो लोटा तो मैं ही खरीदूंगा।”
“वाह, आप कैसे खरीदेंगे? मैं खरीदूंगा। मेरा हक है।”
“हक है?”
“ज़रूर हक है। यह बताइए कि उस लोटे के पानी से आपने स्नान किया या मैंने?”
“आपने।”
“वह आपके पैर पर गिरा या मेरे?”
“आपके।”
“अंगूठा उसने आपका भुरता किया या मेरा?”
“आपका।”
“इसलिए उसे खरीदने का हक मेरा है।”
“यह सब झोल है। दाम लगाइए, जो अधिक दाम दे वह ले जाए।”
“यही सही। आप उसका पचास रुपया दे रहे थे, मैं सौ देता हूँ।”
“मैं डेढ़ सौ देता हूँ।”
“मैं दो सौ देता हूँ।”
“अजी मैं ढाई सौ देता हूँ।” यह कहकर बिलवासी जी ने ढाई सौ के नोट लाला झाऊलाल के आगे फेंक दिए।
साहब को भी अब ताव आ गया। उसने कहा, “आप ढाई सौ देते हैं तो मैं पांच सौ देता हूँ। अब चलिए?”
बिलवासी जी अफसोस के साथ अपने रुपए उठाने लगे, मानो अपनी आशाओं की लाश उठा रहे हों। साहब की ओर देखकर उन्होंने कहा, “लोटा आपका हुआ, ले जाइए! मेरे पास ढाई सौ से अधिक हैं नहीं।”
यह सुनना था कि साहब के चेहरे पर प्रसन्नता की कूंची फिर गई। उसने झपटकर लोटा उठा लिया और बोला, “अब मैं हंसता हुआ अपने देश लौटूंगा। मेजर डगलस की डींग सुनते-सुनते मेरे कान पक गए थे।”
“मेजर डगलस कौन हैं?”
“मेजर डगलस मेरे पड़ोसी हैं। पुरानी चीजों का संग्रह करने में मेरी उनकी होड़ रहती है। गत वर्ष वे हिंदुस्तान आए थे और यहाँ से जहांगीरी अंडा ले गए थे।”
“जहांगीरी अंडा?”
“जी हाँ जहांगीरी अंडा। मेजर डगलस ने समझ रखा था कि हिंदुस्तान से वे ही ऐसी चीजें ले जा सकते हैं।”
“पर जहांगीरी अंडा है क्या?”
“आप जानते होंगे कि एक कबूतर ने नूरजहां से जहांगीर का प्रेम कराया था। जहांगीर के पूछने पर कि मेरा एक कबूतर तुमने कैसे उड़ जाने दिया, नूरजहां ने उसके दूसरे कबूतर को भी उड़ाकर बताया था कि ऐसे। उसके इस भोलेपन पर जहांगीर सौ जान से निछावर हो गया; उसी क्षण से उसने अपने को नूरजहां के हाथ बेच दिया। पर कबूतर का एहसान वह नहीं भूला। उसके एक अंडे को उसने बड़े जतन से रख छोड़ा। एक बिल्लौर की हांडी में वह उसके सामने टंगा रहता था। बाद में वही अंडा जहांगीरी अंडा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी को मेजर डगलस ने परसाल दिल्ली में एक मुसलमान सज्जन से तीन सौ रुपए में खरीदा।”
“यह बात?”
“हाँ, पर अब वे मेरे आगे दूर की नहीं ले जा सकते। मेरा अकबरी लोटा उनके जहांगीरी अंडे से भी एक पुश्त पुराना है।”
साहब ने लाला झाऊलाल को पांच सौ रुपए देकर अपनी राह ली। लाला झाऊलाल का चेहरा इस समय देखते बनता था। जान पड़ता था कि मुंह पर छः दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी के एक-एक बाल मारे प्रसन्नता के लहरा रहे हैं। उन्होंने पूछा, बिलवासी जी! आप मेरे लिए ढाई सौ रुपया घर से लेकर चले थे? पर आपको मिला कहाँ से? आप के पास तो थे नहीं।”
“इस भेद को मेरे सिवा ईश्वर ही जानता है। आप उसी से पूछ लीजिए। मैं नहीं बताऊंगा।”
“पर आप चले कहाँ? अभी मुझे आपसे काम है, दो घंटे तक।”
“दो घंटे तक?”
“हाँ और क्या! अभी मैं आपकी पीठ ठोंककर शाबाशी दूँगा, एक घंटा इसमें लगेगा। फिर गले लगाकर धन्यवाद दूँगा, एक घंटा इसमें भी लग जाएगा।”
“अच्छा पहले अपने पांच सौ रुपए गिनकर सहेज लीजिए।”
रुपया अगर अपना हो तो उसे सहेजना एक ऐसा सुखद और सम्मोहक कार्य है कि मनुष्य उस समय सहज में ही तन्मयता प्राप्त कर लेता है। लाला झाऊलाल ने अपना कार्य समाप्त करके ऊपर देखा। पर बिलवासी जी इस बीच अंतर्धान हो गए थे।
वे लंबे डग भरते हुए गली में चले जा रहे थे।
उस दिन रात्रि में बिलवासी जी को देर तक नींद नहीं आई। वे चादर लपेटे चारपाई पर पड़े रहे। एक बजे वे उठे। धीरे-से, बहुत धीरे-से, अपनी सोई हुई पत्नी के गले से उन्होंने सोने की वह सिकड़ी निकाली जिसमें एक ताली बंधी हुई थी। फिर उसके कमरे में जाकर उन्होंने उस ताली से संदूक खोला। उसमें ढाई सौ के नोट ज्यों-के-ज्यों रखकर उन्होंने उसे बंद कर दिया। फिर दबे पांव लौटकर ताली को उन्होंने पूर्ववत अपनी पत्नी के गले में डाल दिया। इसके बाद उन्होंने हंसकर अंगड़ाई ली, अंगड़ाई लेकर लेट रहे और लेटकर मर गए।
दूसरे दिन सुबह आठ बजे तक वे जीवित भए।