ऐसी भी सुबह होती है एक दिन
जब अकेली औरत
फूट-फूटकर रोना चाहती है,
रोना एक ग़ुबार की तरह
गले में अटक जाता है
और वह सुबह-सुबह
किशोरी अमोनकर का राग भैरवी लगा देती है
उस आलाप को अपने भीतर समोते
वह रुलाई को पीछे धकेलती है
अपने लिए गैस जलाती है
कि नाश्ते में कुछ अच्छा पका ले
शायद वह खाना आँखों के रास्ते
मन को ठण्डक पहुँचाए
पर खाना हलक से नीचे
उतर जाता है
और ज़बान को पता भी नहीं चलता
कब पेट तक पहुँच जाता है,
अब रुलाई का ग़ुबार
अँतड़ियों में यहाँ-वहाँ फँसता है
और आँखों के रास्ते
बाहर निकलने की सुरंग ढूँढता है
अकेली औरत
अकेले सिनेमा देखने जाती है
और किसी दृश्य पर जब हॉल में हँसी गूँजती है
वह अपने वहाँ न होने पर शर्मिंदा हो जाती है
बग़ल की ख़ाली कुर्सी में अपने को ढूँढती है…
जैसे पानी की बोतल रखकर भूल गई हो
और वापस अपनी कुर्सी पर सिमट जाती है
अकेली औरत
किताब का बाईसवाँ पन्ना पढ़ती है
और भूल जाती है
कि पिछले इक्कीस पन्नों पर क्या पढ़ा था…
किताब बंद कर,
बग़ल में रखे दिमाग़ को उठाकर
अपने सिर पर टिका लेती है कसकर
और दोबारा पहले पन्ने से पढ़ना शुरु करती है…
अकेली औरत
खुले मैदान में भी खुलकर
साँस नहीं ले पाती
हरियाली के बीच ऑक्सीजन ढूँढती है
फेफड़ों के रास्ते तक
एक खोखल महसूस करती है
जिसमें आवाजाही करती साँस
साँस जैसी नहीं लगती
मुँह से हवा भीतर खींचती है
अपने ज़िन्दा होने के अहसास को
छूकर देखती है…
अकेली औरत
एकाएक
रुलाई का पिटारा
अपने सामने खोल देती है
सबकुछ तरतीब से बिखर जाने देती है
देर शाम तक जी भरकर रोती है
और महसूस करती है
कि साँसें एकाएक
सम पर आ गई हैं…
…और फिर एक दिन
अकेली औरत अकेली नहीं रह जाती
वह अपनी उँगली थाम लेती है
वह अपने साथ सिनेमा देखती है
पानी की बोतल बग़ल की सीट पर नहीं ढूँढती
किताब के बाईसवें पन्ने से आगे चलती है
लम्बी साँस को चमेली की ख़ुशबू-सा सूँघती है
अपनी मुस्कान को आँखों की कोरों तक
खिंचा पाती है
अपने लिए नई परिभाषा गढ़ती है
अकेलेपन को एकांत में ढालने का
सलीक़ा सीखती है।
सुधा अरोड़ा की कहानी 'एक औरत तीन बटा चार'