बंगाल की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की कार्य-समिति के ‘युगान्तर’ पत्र के बहिष्कार का प्रस्ताव पास करने तथा बंगाल सरकार द्वारा कई पत्रों से जमानत माँगने और सम्पादन में दख़ल देने पर ‘अमृतबाज़ार पत्रिका’ के सम्पादक श्री तुषारकान्ति घोष को लिखा गया एक पत्र।
मैं अख़बारों की आज़ादी का बहुत ही ज़्यादा क़ायल हूँ। मेरे ख़याल से अख़बारों को अपनी राय ज़ाहिर करने और नीति की आलोचना करने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए । हाँ, इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि अख़बार या इंसान द्वेष भरे हमले किसी दूसरे पर करे या गंदी तरह की अख़बार-नवीसी में पड़े, जैसे कि हमारे आजकल के कुछ साम्प्रदायिक पत्रों की विशेषता है। लेकिन मेरा पक्का यक़ीन है कि सार्वजनिक जीवन का निर्माण आज़ाद अख़बारों की नींव पर होना चाहिए।
मशहूर राष्ट्रवादी अख़बार, जिन्होंने अपनी स्थिति बना ली है, वे बड़ी हद तक ख़ुद अपना ख़याल रख सकते हैं। उन पर कोई मुसीबत आती है तो जनता का ध्यान उनकी तरफ़ जाता है। मदद भी उन्हें मिलती है। पर जो छोटे और ऐसे अख़बार हैं जिनका नाम थोड़ा ही है, उनमें सरकार अक्सर दख़ल करती है, क्योंकि उनकी प्रसिद्धि उतनी नहीं है। फिर भी हमारे छोटे-छोटे और कमज़ोर-से-कमज़ोर अख़बारों को सरकारी दबाव का शिकार होने देना ख़तरे की बात है। क्योंकि ज्यों-ज्यों दबाव पड़ता है, त्यों-त्यों दबाव डालने की आदत बढ़ती जाती है और उससे धीरे-धीरे जनता का मन सरकार द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग किए जाने का आदि हो जाता है। इसलिए पत्रकारों की एसोसियेशन तथा सब अख़बारों के लिए यह ज़रूरी है कि कम मशहूर अख़बारों तक के मामलों को यों ही न जाने दें। अगर वे प्रेस की आज़ादी बनाए रखने के ख़्वाहिशमन्द हैं तो उन्हें सजग रहकर इस आज़ादी की रक्षा करनी चाहिए और हर प्रकार के अतिक्रमण को, फिर वह कहीं से भी हो, रोकना चाहिए। यह राजनीतिक विचारों या मतों का ही मामला नहीं है। जिस घड़ी हम उस अख़बार पर हमला होने में अपनी रज़ामन्दी दे देते हैं, जिससे हमारा मत-भेद है, तभी उसूलन हम अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं और जब हमारे ऊपर हमला होता है तो उसका मुक़ाबला करने की शक्ति हममें बाक़ी नहीं रहती।
प्रेस की आज़ादी इसमें नहीं है कि जो चीज़ हम चाहें, वही छप जाए। एक अत्याचारी भी इस तरह की आज़ादी को मंज़ूर करता है। प्रेस की आज़ादी इसमें है कि हम उन चीज़ों को भी छपने दें, जिन्हें हम पसंद नहीं करते; हमारी अपनी भी जो आलोचनाएँ हुई हैं, उन्हें भी हम बर्दाश्त कर लें और जनता को अपने उन विचारों को भी ज़ाहिर कर लेने दें जो हमारे पक्ष के लिए नुक़सानदेह ही क्यों न हों।
क्योंकि बड़े लाभ या अंतिम ध्येय की क़ीमत पर क्षणिक लाभ पाने की कोशिश करना हमेशा एक ख़तरे की बात है। अगर ग़लत माप क़ायम करते हैं और ग़लत तरीक़े अख़्तियार करते हैं, चाहे इस यक़ीन से भी कि हम एक ठीक पक्ष को समर्थन दे रहे हैं, तो भी उन मापों और तरीक़ों का प्रभाव उस ठीक पक्ष पर भी पड़ेगा और उसमें दुराग्रह भर जाएगा। जो ध्येय हमारे सामने है, वह कुछ अंश में उन्हीं मापों और साधनों द्वारा नियंत्रित होगा और शायद उसका अन्तिम परिणाम भी सर्वथा भिन्न हो, जिसकी कि हमने कल्पना भी न की थी।
अगर हमारा ध्येय जनतंत्र और आज़ादी है तो उसे हमें हमेशा अपने काम और कार्रवाइयों में सामने रखना चाहिए। अगर हमारा काम जनतंत्र और आज़ादी-विरोधी तरीक़े पर है तो निश्चित ही उसका फल जनतंत्र और आज़ादी नहीं होगा, बल्कि और ही कुछ होगा।
यह सच है कि ऊँचे-ऊँचे ऐसे सिद्धान्त बनाना आसान है जो कि तर्क-संगत हैं और बड़े अच्छे लगते हैं। पर उन्हें व्यवहार में लाना ज़्यादा मुश्किल है। क्योंकि ज़िन्दगी अधिक तर्क-संगत नहीं है और आदमी के व्यवहार का माप भी उतना ऊँचा नहीं होता जितना कि हम चाहते हैं। हम एक ऐसे जंगल में रहते हैं जहाँ लुटेरे लोग और राष्ट्र अक्सर मनमाने ढंग से इधर-उधर चक्कर लगाते हैं और समाज को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश करते हैं। युद्ध या राष्ट्र की आज़ादी के लिए हलचल या वर्गों के बीच कशमकश और ऐसे संकट पैदा होते रहते हैं जिनसे घटनाओं की स्वाभाविक गति-विधि बदल जाती है। उस वक़्त अपने बनाए ऊँचे सिद्धांतों पर, जो कि आदमियों के व्यवहार का एक माप नियत करते हैं, पूरी तरह से क़ायम रहना मुश्किल हो जाता है। ऐसे संकट के समय में आदमी या जमात की साधारण स्वतन्त्रता पर कुछ हद तक फिर से विचार करना ज़रूरी हो जाता है। ऐसा ज़रूरी होते हुए भी, हमारा फिर से विचार करना एक ख़तरे की बात है और उसके नतीजे भी बुरे निकल सकते हैं, अगर हम पूरी तरह से सजग रहकर न चलें। ऐसा न करेंगे तो हम उसी बुराई के शिकार हो जाएँगे जिसके ख़िलाफ़ कि हम लड़ते हैं।
जब हम जनतंत्र, आज़ादी और नागरिक अधिकार की बात करते हैं तो हमें याद रखना चाहिए कि इनमें ज़िम्मेदारी और अनुशासन भी मौजूद रहता है। बिना व्यक्ति और जमात के अनुशासन पालन किए और ज़िम्मेदारी महसूस किए सच्ची आज़ादी नहीं मिल सकती। ग़ुलाम की हालत और स्वतन्त्रता से आज़ादी की स्थिति में आ जाने पर मनमाने तौर पर काम करने की प्रवृत्ति होना शायद लाज़िमी है। यह अफ़सोस की बात है। लेकिन उसे समझना मुश्किल नहीं है; क्योंकि लम्बे अर्से से चले आनेवाले दबाव की यह प्रतिक्रिया है। कुछ हद तक इसको बर्दाश्त किया जाना चाहिए, क्योंकि उसे दबाने का मतलब तो उस भावना पर ज़ोर देना है जिससे कि यह पैदा हुई है। फिर भी, हम सबको अपनी आज़ादी को नीचे गिराकर मनमानेपन, ग़ैर ज़िम्मेदारी और अनुशासनहीनता में परिणत होने से रोकने के लिए तैयार रहना चाहिए।
हिन्दुस्तान सहनशीलता का शानदार नमूना है, चीन को छोड़कर दुनिया के किसी भी मुल्क में ऐसा नमूना नहीं है। उस वक़्त जबकि यूरोप और दूसरे मूल्क ख़ून में नहा रहे थे, धर्म की लड़ाइयों में फँसे थे और एक-दूसरे के मत या विचारों को दबाने में लगे थे, हिन्दुस्तान और चीन दूसरे मूल्कों के धर्मों के लिए अपने द्वार खोल रहे थे। संस्कृति के सुनहले युग का उन्हें विश्वास था। सहिष्णुता और संस्कृति की महान् पृष्ठभूमि हमारे लिए एक क़ीमती विरासत है।
आज हममें उन दूसरे मामलों के बारे में उत्साह है जिनका हमसे महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है। यह ठीक ही है कि इन मसलों के बारे में हम गहराई के साथ सोचें, क्योंकि उन्हीं के परिणामों पर हमारे मुल्क और दुनिया का भविष्य निर्भर करता है। यह ठीक है कि हम उस पक्ष को आगे बढ़ाने में अपनी पूरी ताक़त लगा दें, जो हमें प्रिय है। लेकिन यह ठीक नहीं है कि हम उन सिद्धान्तों को ही छोड़ दें या ढीला कर दें जो कि पुराने ज़माने में हिन्दुस्तान की सभ्यता का गौरव और कुछ भिन्न अर्थ में, जनतंत्रीय आज़ादी की नींव रहे हैं। सबसे अधिक हमें आज़ादी और नागरिक अधिकारों के साथ अनुशासन और ज़िम्मेदारी को जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए।
जवाहरलाल नेहरू का प्रसिद्ध भाषण 'भाग्य से सौदा'