अमृता प्रीतम की आत्मकथा ‘अक्षरों के साये’ से उद्धरण | Quotes from ‘Aksharon Ke Saaye’, by Amrita Pritam
“यह मेरा और साहिर का रिश्ता, रिश्तों की किसी पहचान की पकड़ में नहीं आएगा।”
“उनके रिश्ते में तन नहीं रहे थे, सिर्फ़ मन था, जिसे धड़कते हुए, कुछ धरती ने सुना, कुछ आकाश ने… मेरा और साहिर का रिश्ता भी कुछ इसी रोशनी में पहचाना जा सकता है—जिसके लम्बे बरसों में कभी तन नहीं रहा था—सिर्फ़ मन था—जो नज़्मों में धड़कता रहा…”
“दुनिया में रिश्ता एक ही होता है—तड़प का, विरह की हिचकी का, और शहनाई का, जो विरह की हिचकी में भी सुनायी देती है!”
“अचेत मन ने युग-युग के अहसास अपने में लिपटाए होते हैं पर किसी गाँठ को वह कब अपने पोरों से खोलकर रख देता है, इसका घड़ी-पल कोई नहीं जानता।”
“किसी इलाही-शक्ति का कण जिसकी झोली में पड़ता है, फिर शायद रवायती ज़िन्दगी का कोई भी सुख उसकी झोली में नहीं पड़ सकता।”
“कवि अपने प्रिय का पता जानता है, पर कविता को नहीं बता सकता। इश्क़ का यह मौन-व्रत इलाही-क्षणों का तक़ाज़ा होता है।”
“लगता है—मैं सारी ज़िन्दगी जो भी सोचती रही, लिखती रही, वह सब देवताओं को जगाने का प्रयत्न था, उन देवताओं को, जो इंसान के भीतर सो गए हैं…”
“एक वक़्त था, जब देवताओं ने सागर मंथन किया था—और चौदह रत्न प्राप्त किए गए। कहना चाहती हूँ—आज हमें फिर से सागर मंथन करना है, और पन्द्रहवाँ रत्न पाना है—अपनी आचरण-शक्ति का रत्न।”
“धर्म तो मन की अवस्था का नाम है—उसकी जगह मन में होती है, मस्तक में होती है और घर के आँगन में होती है। लेकिन हम उसे मन-मस्तक से निकालकर और घर-आँगन से उठाकर बाज़ार में ले आए हैं।”
“अगर देश की मिट्टी का धर्म समझ लिया जाए तो अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के टकराव का सवाल ही पैदा नहीं होता। कोई एक अकेला भी मिट्टी को उतना ही प्यारा होता है, जितने हज़ारों या लाखों।”
“धर्म तो आँखों की रोशनी होता है ओर यह सदियों का दुखान्त है कि धर्म के नाम पर इंसान से आँखों की बलि माँगी गई और चिंतन से तर्कशक्ति की बलि माँगी गई…”
“यही हमारे समय का दुखान्त है कि धर्म के नाम पर इनसान की तर्कशक्ति से ज़बान की बलि माँगी जाती है, विश्वास से आँखों की बलि माँगी जाती है।”
“मुहब्बत और मज़हब—दो ऐसी घटनाएँ हैं, इलाही घटनाएँ, जो लाखों लोगों में से कभी किसी एक के साथ घटित होती हैं।”
“एक हमारी रबिया बसरी थीं, जिसके बारे में कहा जाता है कि एक दिन वह एक हाथ में जलती हुई मशाल लेकर और दूसरे हाथ में पानी की मटकी लेकर भागती हुई, गाँव-गाँव से गुज़र रही थीं कि बहुत से लोग इकट्ठे हो गए, पूछने लगे— “राबिया, यह क्या कर रही है?” कहते हैं, उस वक़्त राबिया ने कहा— “मेरे लाखों मासूम लोग है जिन्हें बहिश्त का लालच देकर उनकी आत्मा को गुमराह किया जा रहा है ओर उन्हें दोज़ख़ का ख़ौफ़ देकर उनकी आनेवाली नस्लों को भी ख़ौफ़ज़दा किया जा रहा है। मैं इस आग से बहिश्त को जलाने जा रही हूँ और इस पानी में दोज़ख़ को डुबाने जा रही हूँ!”
“जिस तरह वक़्त को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है—क्राइस्ट से पहले और क्राइस्ट के बाद, मैं दर्शन को दो हिस्सों में तक़सीम करती हूँ—एक अंतर अनुभव से पहले और एक अंतर अनुभव के बाद…”
“मैं मानती हूँ कि अकाल सिर्फ़ खेतों-खलिहानों में नहीं पड़ता, लोगों की आत्माओं में भी पड़ता है…आज हमारे देश के जो हालात हैं, दुआ करती हूँ कि हमारी आत्माओं में ऐसा अकाल न पड़ जाए कि हम इंसानी मुहब्बत की और इंसानियत की बात करना भूल जाएँ…”
“दोस्तो! दुआ माँगो कि मौसम ख़ुशगवार हो!
यह कुल्हाड़ियों का मौसम बदल जाए
पेड़ों की उम्र पेड़ों को नसीब हो!
टहनियों के आँगन में
हरे पत्तों को जवानी की दुआ लगे!
मुसाफ़िरों के सिरों को छाया
और राहों को फूलों की आशीष मिले!”
“जड़ता सोयी हुई चेतना होती है और चेतना जागी हुई जड़ता।”
“यह जिस्मों का व्यापार है—पुरुष और नारी तराजू के दो पल्ले हैं, रोज़ माँस तौलते हैं, लहू बेचते हैं ओर माँस मिट्टी के दो-तीन छोटे-छोटे सिक्के कमा लेते हैं… रंग और नक़्श क़ीमती हों तो क़द्रदान आते हैं, सोना बरसाते हैं… अगर देह कुछ सस्ती है तो दहेज की बोली भी लगती है, इस व्यापार के कितने ही बाज़ार होते हैं, एक बाज़ार में तो लोग गाते-बजाते हैं, अपने इष्टदेव की मुठ्ठी में कुछ देकर सौदे पर मोहर लगवाते हैं और दिन की रोशनी में भी बेचने के हक़दार हो जाते हैं—और एक बाजार में—चुपके से रात के अंधेरे की ओट में वही वस्तु, वही मोल-भाव और ख़रीदार आते हैं… यह जिस्मों का व्यापार है—जहाँ पुरुष और नारी तराजू के दो पल्ले हैं…”
“जो क्रान्ति सचमुच की क्रान्ति होती है—वह ‘क्या’ की बात नहीं करती, ‘क्यों?’ की बात करती है। उसका दर्द उस बीज का दर्द होता है जिसे मन की मिट्टी से, मस्तिष्क की धूप से और आत्मा के पानी से वंचित कर दिया जाता है।”
“शायरी, अफ़साना-निगारी, मौसीक़ी, चित्रकला या बुत-तराशी, तख़लीक़ की कोई भी सूरत हो, पर तख़लीक़ अपने-आप में उस रिश्ते की नुमाइंदगी करती है, जो रिश्ता कलाकार की ज़ाती चेतना और लोगों की मजमूई-चेतना के बीच में इस तख़लीक़ के ज़रिए बनना होता है।”
“चेतना के एक हुजरे में बैठकर अन्तरमन की यात्रा पर उतर जाना, वह अनुभव है जो शब्दों की पकड़ में नहीं आ सकता। यह मुक़ाम ख़ामोश हो जाने का होता है।”
रेनर मारिया रिल्के की किताब 'एक युवा कवि को पत्र' से उद्धरण