घर के सामने अपने आप ही उगते और फिर बढ़ते हुए एक अमरूद के पेड़ को मैं काफ़ी दिनों से देखता हूँ। केवल देखता ही नहीं, इस देखने में और भी चीज़ें शुमार हैं। तीन-चार साल में बड़े हो जाने, फूलने और फल देने के बाद भी उसकी ऊँचाई गंधराज या हरसिंगार के पेड़ से ज़्यादा नहीं बढ़ी। शुरू-शुरू में तो परिवार के सभी लोगों ने उसके प्रति उदासीनता ही रखी या कहूँ लापरवाही बरती तो ग़लत नहीं होगा। राम-भरोसे पेड़ जब बड़ा हो गया और हमारे मकान का फ़्रंट जब भरा-भरा लगने लगा तो सबसे पहले बाबू कन्हैयालाल की बूढ़ी पत्नी ने एक दिन टोका कि पश्चिम की तरफ़ अगर मकान का मुखड़ा हो और सामने अमरूद का पेड़ तो ‘राम-राम बड़ा अशुभ होता है।’ अम्मा के चेहरे पर थोड़ा-सा भय अपने कुनबे के लिए आया पर मुझे विश्वास था कि इन सब पिछड़े ख़यालात का हमारे घर में गुज़र नहीं हो सकेगा।

माँ अजमेर में जेल कर चुकी हैं—लम्बा जेल। सत्याग्रह के दिनों में। पिता जी ख़ुद राजनैतिक-सामाजिक उदारतावाले आदमी हैं। हमारी एक बुआ ने विवाह नहीं किया और पढ़ने-लिखने में ही उन्होंने अपनी ज़िन्दगी डुबो दी और समाज उन्हें कोई चुनौती देने का साहस नहीं कर सका। एक को छोड़कर हम सभी भाइयों में खिलाड़ीपन है। चचेरे ने अंतर्जातीय विवाह किया है और मुझे तरस आ गया कि कन्हैयालाल की बूढ़ी पत्नी कैसी बेहूदा-फूहड़ बात कहती है। ख़ैर, यह तो ऊपरी बात हुई लेकिन मैं अक्सर पाता कि अंदरूनी तौर पर भी हम सभी लोगों में कहीं पिछड़ेपन की भर्त्सना का भाव अँकुरा रहा है। वैसे अम्मा की प्रीतिकर, सुंदर, गोरी मुखाकृति पर अमरूद के प्रसंग में हमेशा भय की व्याप्ति हो आती थी।

सत्तावन की बरसात में अकस्मात एक दिन मिद्दू ने सबको दौड़-दौड़कर बताया कि अमरूद में तीन-चार सफ़ेद फूल आ गए हैं। मिद्दू की उमर बढ़ रही थी, उसकी आकृति पर वय का ओप चढ़ रहा था। अमरूद बढ़ने में कहीं उसे अपने विकास की-सी संतुष्टि अनुभव हुई होगी। वह ख़ुश थी। बरामदे की खिड़की पर तेज़ बारिश में हम लोग छोटे-से पप्पू को खड़ा कर यह बताते कि ‘वो देखो पप्पू बेटे, अमरूद का फूल।’ ‘अमरूद ता फूल।’ मैं सोचता कि कहीं पानी के झोंकों में नरम फूल टूट न जाएँ। बहुतेरे फूल टूटे भी, लेकिन उनकी जगह नए फूल आते गए और फिर जल्दी से बीत जानेवाले सुखद दिनों में, छोटे-छोटे अमरूदों में बदल गए।

मुझे लगा कि हमारे घर के सामने का यह अमरूद हमारी ज़िन्दगी का एक घरेलू हिस्सेदार होता जा रहा है। घोष बाबू के माली ने माँ को बताया कि पहली फ़सल के फल तोड़कर फेंक देने से दूसरी बारी में फल ख़ूब अच्छे आते हैं। अमरूद और नींबू के साथ यह बात ख़ास लागू होती है। माँ ने विजय से कहकर अमरूद की पहली फ़सल बड़ी दिलचस्पी से पूरी बाढ़ के पहले ही तुड़वाकर फिंकवा दी थी। यह बात आसानी से महसूस की जा सकती थी कि माँ में विराट मातृत्व है और वह भविष्य के लिए प्रतीक्षा कर सकती हैं, उसी तरह जैसे हर माँ अपनी संतान के लिए दीर्घ प्रतीक्षा किया करती है और फिर भी उसको अपना स्वप्न अधूरा लगता है। जो भी हो, मुझे प्रसन्नता हुई कि अपशकुनी विश्वासों की ज़हरीली छाया हमारे कोमल मीठे अमरूद तरु पर नहीं पड़ी।

तोते का पिंजरा सुबह दरवाज़ा खुलने के साथ ही अमरूद की एक छोटी-सी टहनी पर टाँगा जाने लागा था। वह दोपहरी तक उस पर टँगा रहता। चुन्नू, मिद्दू और पप्पू ने फुर्ती से नाज़ुक फुनगियों तक चढ़ने की माहिरी इसी पेड़ से प्राप्त की। दशहरा, दीवाली, तीज-त्यौहार पर दादी की जीभ जब सूरन खाने को ललचाती तो अमरूद की पत्तियों में सूरन को पकाकर स्वादिष्ट बनानेवाली ज़रूरत की पूर्ति भी वही पेड़ करता था। कहते हैं कि अमरूद की पत्तियों में सूरन को पकाने से सूरन गले में काटता नहीं है। लगने लगा था कि अमरूद का पेड़ ज्यों हमारी एक बड़ी सुविधा है या हमारे अंदर आत्मीयता को निरंतर धनिक बनानेवाला कोष।

दूसरे बरस के जाड़े में पेड़ ख़ूब लदा-फदा था। अमरूद गोल, छोटे मगर ललछर चित्तियोंवाली जात के थे। ढेपियाँ मुलायम होते ही लोग उन्हें तोड़ लेते और पूरे जाड़े जी-भरकर घर में टमाटर और अमरूद का सलाद खाया गया। सुग्गे के लिए कई महीन ख़ूब पके अमरूद उपलब्ध होते रहे और बाहर के मेहमान हमारे घर के अमरूदों में इलाहाबाद के अमरूदों की प्रसिद्धि का इत्मीनान कर लेते थे।

यह बात मुझे बहुत रोमांचित करती थी कि हमारे घर तथा निकटतम सम्बन्धियों के यहाँ नई पीढ़ी काफ़ी अनुपात में आधुनिक हो चली है। मुझे मनःस्थितियों और वातावरण की इस तब्दीली का अध्ययन बड़ा सुखद लगा। हममें दृष्टिकोण की उदारता परिलक्षित होती और किसी भी घटना या आकस्मिकता या एक सम्पूर्ण परिस्थिति को हम लोग अनहोनी नहीं मानते थे। जीवन में सब सहज है, सब सम्भव। अमरूद की छाया में बेंत की कुर्सियों पर बैठ चर्चाएँ कर-करके हम तीन-चार भाई-बहनों ने अपने उम्र के फ़र्क़ को दोस्ताना हरकतों से भर दिया। प्रायः बैठकर, नए-नए विषयों को कुरेदकर, कभी ताप और उग्रता के वशीभूत होकर भी बातचीत करना, तेज़ी से हम लोगों के मनोरंजन और दैनिक निर्वाह का एक अंग होता जा रहा था। मैंने महसूस किया कि घर के बुज़ुर्गों के बारे में हम लोग अक्सर तुर्श भी हो उठते हैं, लेकिन हमें इस बात की निश्चिंतता थी कि ऐसा होने में अवांछनीय कुछ भी नहीं है, अपितु यह अच्छी बात है। नई चीज़ें यूँ ही बनती हैं। जैसे अमरूद का पेड़ हम लोगों के बीच अपशकुन के आरोपों को नष्ट करता हुआ धीरे-धीरे बना और वह अब पूरे परिवार का एक ख़ूबसूरत हिस्सा हो गया है।

अमरूद फलता-फूलता रहा और अब पप्पू ने एक निहायत छोटा-सा झूला भी उस पर डाल लिया। इधर हम भाई लोग धीरे-धीरे अलग-अलग शहरों के भूगोल में जुदा तरीक़ों की नौकरी के लिए बँटने लगे। यह कोई असामान्य बात नहीं थी, सिवाय इसके कि घर से अलग होने में थोड़ा-बहुत मानसिक क्लेश सबको होता था। जिस दिन मैं नौकरी पर जा रहा था, माँ रो रही थीं, इसलिए मैं शीघ्रातिशीघ्र घर छोड़कर निकल जाने को तत्पर था। जमुना-पुल डूबी हुई साँझ में नदी पर से भारी मन से गुज़रते हुए सबसे ज़्यादा माँ और अमरूद के पेड़ की याद आयी। माँ की याद इसलिए क्योंकि वह दुर्बल हैं और हम लोगों को न समझ पाकर क्रमशः जड़ होती जा रही हैं और अमरूद की याद इसलिए कि उसके माध्यम से मैं अपने अंदर एक जागृति का भान करता रहा। अमरूद का पेड़ मुझमें प्रतीकों का निर्माण किया करता है और फिर एक नए संसार की कल्पना में डूबकर शक्ति और आत्मसंतुष्टि पाता रहा हूँ।

अमरूद के पेड़ के प्रति समर्थन और राग मेरे मन में यूँ भी एकत्र हो आया क्योंकि बाद में कई लोगों ने घर के सामने अमरूद होने को अशुभ बताया और पेड़ को तुरंत कटवा देने की सलाह दी। माँ पर छा जानेवाला स्वाभाविक भय हमें नागवार गुज़रता क्योंकि ऐसा लगता जैसे माँ हम लोगों के अंदर पैदा होनेवाले नए और बलिष्ठ ख़यालों के प्रति असहयोग कर रही हैं। जब-जब अशुभ के ठेकेदारों ने अमरूद की बाबत कुछ कहा, घर के हम सब बच्चे क्षुब्ध हो उठते थे। वस्तुतः यह गुण हमें हमारे बुज़ुर्गों से ही मिला था। इस निर्णय पर हम लोग तब पहुँचे जब एक समाजशास्त्रीय बोध हमें स्पर्श करने लगा था।

जीवन नए अनुभवों में गुज़रने में व्यतीत होता रहा। मिद्दू ने राखाल के साथ अमरूद भिजवाए थे और ख़त लिखा था कि ‘इस बरस जबकि अमरूद भरपूर आया है, घर पर कोई नहीं है।’ तथा नम कर देनेवाली जज़्बाती बातचीत के कई नाज़ुक टुकड़े। पिता जी की चिट्ठियाँ हमेशा ही कुछ दूसरे प्रकार की रही हैं। उनमें एहसास की चादर ओढ़ने का प्रयत्न या दबाव रहता है। मैं देखता हूँ कि थोड़े समय में ही दुनिया में बहुत परिवर्तन हो गया है और यह परिवर्तन तेज़ी से दूसरे परिवर्तन की भूमिका बनता जा रहा है। बड़े-बड़े घातक शरीर दुख मामूली और अचिंतनीय हो गए हैं और पिता जी लिखते हैं कि ‘माँ के बाएँ फेफड़े में जो धब्बा था वह पुनः उभर आया है, यह सब किसी अशुभ ग्रह-नक्षत्र का दुष्परिणाम है। शायद हम लोगों के बुरे दिन आ गए हैं।’ लेकिन मैं जानता हूँ कि अब यक्ष्मा बहुत आसान है और कहानियों में भी पात्रों का यक्ष्मा से ग्रसित होना, लोगों को द्रवीभूत नहीं कर पाता। अच्छे सम्पादक ऐसी कहानियों से ऊब गए हैं और उन्हें लौटाना ही श्रेयस्कर समझते हैं। फिर मृत्यु भी आज उतनी असह्य नहीं रह गई है। दुख शरीर से मन पर सिमट आया है। पिताजी ने एक बार यह भी लिखा कि ‘सबसे बड़े भाई चूल्हा-चौका अलग करने के लिए एक तनाव पैदा कर रहे हैं। बड़ी चखचख है। बहू ताज़ी रोटियाँ तो ख़ुद खा जाती है और बासी हम लोगों के लिए रख देती है। तुम क्या जानो, हम लोगों का जीना मुहाल हो गया है। इधर तुम्हारी माँ अमरूद का पेड़ काटने को कहती हैं। सब लोग उसे अशुभ बता रहे हैं’ आदि-आदि। यह एक दुखद प्रसंग था। हालाँकि मैंने अमरूद न काटने की अपनी बात पर ही ज़ोर देनेवाली एक चिट्ठी माँ को लिख दी थी।

राखाल हमारे पेड़ के जो अमरूद लाया था, वे बाज़ारू अमरूदों की सुंदरता से बहुत भिन्न होकर भी स्वादिष्ट थे। अमरूदों के और दोस्तों के बीच अच्छा समय गुज़ारते हुए मैं किंचित भावुक हो आया। मुझे वे दिन याद आने लगे जब हम छोटे-छोटे थे और सुबह, दिन-दोपहरी दूसरे बँगलों की चारदीवारियाँ कूदकर अमरूदों की चोरी करते और पकड़े जाने पर बुरी तरह गिड़गिड़ाया करते। आज हमारे घर में भी अमरूद का पेड़ है तो एक अजीब-सा गौरव होता है—यह कि जिनके घर अमरूद नहीं होंगे, वे बच्चे ईर्ष्यालु हो गए होंगे, हमारी चारदीवारी कूदते होंगे। अमरूद के इस पेड़ की वजह रफ़्ता-रफ़्ता पप्पू के बहुत-से नन्हें-मुन्ने दोस्त हो गए हैं, ऐसा अम्मा ने लिखा था और भौजाई से उसे इस बात की बहुत डाँट पड़ती है कि वह क्यों अपनी तबीयत का राजा हो गया है, जिसे चाहे अमरूद लुटाया करता है।

अपने इस अमरूद के पेड़ के सम्बन्ध में कभी-कभार फ़ैशनेबल ढंग से भी मैं सोचा किया हूँ। होटलों के लॉन में लगे, बैठनेवालों को सुखद छाँह देते हुए, रंगीन छातों की छाया मेरी आँखों में अक्सर उभरी है। अमारा अमरूद का पेड़ एक हरा छाता। एक डँगरा-सा फलता-फूलता पेड़ जिसमें अनुपातहीन डालें नहीं बल्कि एक सँवरापन।

जब घर जाने को पहली छुट्टी मिली तो मन बेहद आतुर हो गया। सुख तन-मन पर एक वहशत की तरह सवार था। फिर अँधेरे जमुना-ब्रिज से गुज़रती हुई गाड़ी ने उत्तेजित कर दिया और रात के सन्नाटे में एक अभूतपूर्व रोमांच के साथ मैंने अपने प्यारे शहर को देखा। वह रात उजाले की प्रतीक्षा में उड़ी हुई नींद की एक सुखद पर बेचैन रात थी। पता नहीं, एक अजीब भयानक-सी विराटता के ख़याल मन पर छोटे-छोटे टुकड़ों में बनते-बिगड़ते रहे। जैसे नगर इलाहाबाद की आत्मा में बहुत क्रांति है। अपने आप लोग काम कर रहे हैं, बु़द्धियाँ किसी नए रचनात्मक परिवेश के लिए सक्रिय हैं। स्थूल के नाम पर यह शहर जैसे परम शून्य है। लेकिन धँसने पर…। शायद मैं बहुत व्याकुल था।

तड़के उठकर मुझे इस बात का बड़ा खेद हुआ कि शायद हमारे प्रति घर के बड़ों में कोई स्वागत भाव नहीं है। ऐसी स्थितियों में मुझे बारम्बार अवनींद्र बाबू का वह चित्र याद आ जाता है जिसमें एक बूढ़े पेड़ की आत्मा अपने को तोड़ देने के प्रयत्न में सुखी है क्योंकि उसे यह जानकारी है कि उसकी घेर में एक नवल तरु उग आया है। यह बात उतनी बुरी नहीं थी कि अमरूद के पेड़ को काटकर उसकी जगह एक ओर गुलदाउदी और दूसरी ओर केले की क्यारियाँ बना ली गई हैं बल्कि चुनौती इस बात की थी कि हम लोगों में जब धीरे-धीरे ज़िन्दगी की बुलंदी विकसित हो रही थी, तभी माँ को रूढ़ि और अशुभ के मिथ्या भय ने पराजित कर दिया। शायद माँ की हम संतानें उन्हें अशुभ से लड़ सकने की अपनी सामर्थ्य का आश्वासन नहीं दे सकी थीं। मैंने पाया कि वह भय जो माँ के चेहरे पर क्षणजीवी हुआ करता था, अब गहरा गया है। माँ का मन यह मान बैठा था कि बड़ी बहू की अलगाव-भावना, सबसे छोटे का निठल्लापन, ख़ुद उनकी बीमारी और लोगों का धंधे से बिखर जाना और कुछ नहीं है, बहुत दिनों तक दरवाज़े पर उसी अमरूद के पेड़ के लगे रहने का दुष्परिणाम है जिसे काफ़ी पहले ही लोगों ने अशुभ बताया था।

कुछ देर बाद मैंने साधारण तौर पर अमरूद की बाबत माँ से पूछा तो मिद्दू के ग़ुस्से का सहारा मिला। उसकी कंडैल-सी आँखों में एक छोटा-सा तूफ़ानी झोंका उठा, बैठ गया। उसका मुँह फूल गया था। मेरे लिए तसल्ली बस इतनी थी कि मुझे उसका क्षोभ अच्छा लगा, क्योंकि यह क्षोभ मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों में निहायत ज़रूरी है और क्योंकि यह जीवन का परिष्कार करता है, बशर्ते इस क्षोभ का संस्कार हो और उसे स्वयं पोसा तथा सहा भी जा सके। अम्मा ने मेरे प्रश्न का अपने ढंग से ठीक जवाब भी दिया। शायद उन्हें भी दुख था—बहुत दुख, इसलिए कि हम दुखी थे। मिद्दू ग़ुस्सा थी। इसलिए नहीं कि उनसे कोई ग़लत काम हुआ है।

सूरज पिछवाड़े के पीपल के ऊपर आ रहा था और जहाँ अमरूद की जड़ थी, वहाँ धूप का एक चकत्ता तेज़ी से बड़ा होता दीख पड़ा।

ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता'

Book by Gyanranjan:

ज्ञानरंजन
ज्ञानरंजन [जन्म: 21 नवंबर, 1936] हिन्दी साहित्य के एक शीर्षस्थ कहानीकार तथा हिन्दी की सुप्रसिद्ध पत्रिका पहल के संपादक हैं।