मूल कविता: ‘An Introduction’
कवयित्री: कमला दास
भावानुवाद: दिव्या श्री

मैं राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानती
लेकिन उन नामों को जानती हूँ
जो सत्ता के शिखर पर हैं
…नेहरू से लेकर
और उन्हें ऐसे दोहरा सकती हूँ
जैसे सप्ताह के दिन या महीनों के नाम

मैं भारतीय हूँ, मालाबार में जन्मी, बहुत साँवली
मैं तीन भाषाओं में बोलती हूँ
लिखती हूँ दो में
स्वप्न एक ही भाषा में देखती हूँ
कुछ लोग कहते हैं
अंग्रेज़ी में मत लिखो, यह तुम्हारी मातृभाषा नहीं है
मैं कहती हूँ
मुझे अकेला क्यों नहीं छोड़ देते तुम सभी
(आलोचको, दोस्तो, रिश्तेदारो)
मुझे बोलने क्यों नहीं देते, जो मुझे पसन्द है
वह भाषा जो मैं बोलती हूँ
वह मेरी है
उसकी ख़ामियाँ, उसकी ख़ूबियाँ
सब मेरी हैं, सिर्फ़ मेरी

मैं जो लिखती हूँ
वह आधी अंग्रेज़ी और आधी भारतीय है
सुनने में शायद अजीब लगे
लेकिन यही सच है
तुम देखते नहीं
जैसी मैं हूँ, वैसी ही मेरी भाषा है
यही मेरे आनन्द, इच्छाओं और उम्मीदों को आवाज़ देती है
और यह उतनी ही ज़रूरी है
जितना ज़रूरी है कौओं का काँव-काँव करना या शेरों का दहाड़ना
यह इंसान की भाषा है
दिमाग़ की भाषा है, जो यहाँ है वहाँ नहीं
यह जो देखता है, सुनता है, सब समझता है
यह बहरा नहीं है
तूफ़ान में फँसे हुए पेड़ों की तरह
या गरजते हुए बादलों की तरह या बारिश की तरह
या फिर जलती हुई चिता की तरह

मैं बच्ची थी
और बाद में उसने मुझे कहा—मैं बड़ी हो गई हूँ
क्योंकि मैं लम्बी थी, मेरे अंग बढ़ रहे थे
और एक-दो जगह बाल भी उग आए थे
जब मैंने प्रेम माँगा
उस वक़्त मैं नहीं जानती थी इसके अलावा माँगा क्या जाए?
तो वह मेरे लिए मेरे कमरे में
एक सोलह साल का लड़का ले आए
और दरवाज़ा बन्द कर दिया
उसने मुझे मारा नहीं
लेकिन मेरी दुखती देह ऐसा महसूस कर रही थी
मेरी छाती और कोख के वज़न ने मुझे कुचल दिया
मैं दयनीय रूप से सिकुड़ गई थी

फिर मैंने एक शर्ट और अपने भाई की पैंट पहन ली
अपने बाल छोटे कर लिए
अपने नारीत्व की उपेक्षा की
उसने कहा—साड़ी पहनो, लड़की बनो, पत्नी बनो
सिलाई करो, खाना बनाओ और नौकरों से झगड़ा करो
दोबारा उसने चिल्लाते हुए कहा—
उन सब चीज़ों में फ़िट रहो
जहाँ से तुम आती हो
(औरत हो औरत की तरह रहो)
दीवारों पर मत बैठो
खिड़कियों के पर्दे से मत झाँको
एमी बनो या कमला
नहीं तो सबसे बेहतर है माधवी कुट्टी ही रहो

अब वक़्त आ गया है
अपना नाम और रोल चुनो
ढोंग का खेल मत खेलो
पागल मत बनो
प्रेम में धोखा मिले पर इतने ज़ोर से चिल्लाकर मत रोओ
मैं एक आदमी से मिली, प्रेम किया
लेकिन उसे किसी नाम से नहीं बुलाऊँगी
वह भी उसी तरह है जो चाहता है सिर्फ़ स्त्री
और मैं हर उस स्त्री की तरह हूँ
जो चाहती थी सिर्फ़ प्रेम
उसके अन्दर नदियों की तरह भूख थी
और मेरे अन्दर समुद्रों की तरह कभी न थकने वाला इन्तज़ार था

मैंने हर किसी से पूछा—
कौन हो तुम?
और सबने कहा—मैं, मैं हूँ
हर जगह, हर कहीं मैं उसे देखती हूँ
जो ख़ुद को मैं कहता है
ऐसे कितने लोग हैं इस दुनिया में
जो अपने ही अन्दर बंधे हैं
जैसे अपनी म्यान में तलवार
मैं वो ही हूँ जो आधी रात को बारह बजे
अजीब-अजीब शहर के रेस्त्राँ में अकेले बैठकर शराब पीता है
मैं वो ही हूँ जो हँसता है
मैं वो ही हूँ जो प्रेम करता है और शर्माता है
मैं वो ही हूँ जो यहाँ गले में खड़खड़ाहट के साथ मर रहा है
मैं पापी हूँ, मैं सन्त हूँ
मैं ही प्रिय और विश्वासघाती हूँ
मेरे मन में ऐसी कोई ख़ुशी नहीं
जो तुम्हारी न हो
और न ही ऐसा कोई दर्द है
मैं भी ख़ुद को ‘मैं’ कहती हूँ।

कमला दास की कविता 'प्यार'

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दिव्या श्री
मैं दिव्या श्री, कला संकाय में स्नातक कर रही हूं। कविताएं लिखती हूं। अंग्रेजी साहित्य मेरा विषय है तो अनुवाद में भी रुचि रखती हूं। बेगूसराय बिहार में रहती हूं। प्रकाशन: हंस, वागर्थ, ककसाड़, कविकुम्भ, उदिता, जानकीपुल, शब्दांकन, इंद्रधनुष , पोषम पा, कारवां, साहित्यिक, तीखर, हिन्दीनामा, अविसद, ईमेल आईडी: [email protected]