तुम मेरा इतिहास लिख सकते हो
अपने कड़वे, मुड़े-तुड़े झूठों से
तुम मुझे गंदगी में कुचल सकते हो
फिर भी, धूल की तरह, मैं उठूँगी।

क्या मेरी उन्मुक्तता तुम्हें तंग करती है?
क्यों घिरे हो तुम अंधकार में?
क्योंकि मैं चलती हूँ
जैसे मेरे पास हों
कमरे में तेल उगलते हुए कुएँ।

चांदों और सूरजों की तरह
ज्वार-भाटों की निश्चितता के साथ
उम्मीद की तरह फूट पड़ूँगी
मैं फिर भी उठूँगी।

क्या तुम देखना चाहते थे मुझे विखण्डित?
मेरा सिर झुका हुआ और नज़रें गड़ी हुईं?
कंधे आँसुओं की तरह गिरते हुए
मेरे भावपूर्ण रुदन से (मुझे) कमज़ोर?

क्या मेरा गर्वीलापन तुम्हें करता है नाराज़?
क्या तुम उसे कुछ ज़्यादा ही महसूस नहीं करते
क्योंकि मैं हँसती हूँ
जैसे मेरे आँगन में सोने की खदानें हों।

तुम मुझे गोली मार सकते हो अपने शब्दों से
अपनी आँखों से काट सकते हो तुम मुझे
मार सकते हो तुम मुझे अपनी नफ़रत से
फिर भी, हवा की तरह, मैं उठूँगी।

क्या मेरी कामुकता तुम्हें दुखी करती है?
क्या यह एक आश्चर्य है तुम्हारे लिए
कि मैं नाचती हूँ
जैसे मेरी जाँघों के सन्धिबिन्दु पर हीरे गड़े हों

इतिहास की शर्मनाक झोपड़ियों से बाहर
मैं उठूँगी
दर्द में गड़े भूतकाल से ऊपर
मैं उठूँगी
मैं एक काला समुद्र हूँ, फैलता हुआ और विस्तृत
मैं सहती हूँ ज्वार के दौरान उफनना और उमड़ना

आतंक और डर की रातों को पीछे छोड़ते हुए
मैं उठती हूँ
अद्भुत स्पष्ट भोर के साथ
मैं उठती हूँ
अपने पूर्वजों के दिए उपहार मैं लाती हूँ साथ
मैं स्वप्न हूँ और हूँ दासों की उम्मीद
मैं उठती हूँ
मैं उठती हूँ
मैं उठती हूँ।

माया एंजेलो की कविता 'सीख'

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