आदत हो गयी है मुझको, अब तो अंधरे में रहने की
बुझा देता हूँ चराग, डर लगने लगा अब तो उजाले से
निकल आता है खुर्शीद रोज, पूछता हूं चाँदना कब होगा
चल रहा हूँ राहों पर, मंजिल का पता होगा कि नहीं होगा
आदत हो गयी है मुझको, अब तो अंधरे में रहने की
बुझा देता हूँ चराग, डर लगने लगा अब तो उजाले से
निकल आता है खुर्शीद रोज, पूछता हूं चाँदना कब होगा
चल रहा हूँ राहों पर, मंजिल का पता होगा कि नहीं होगा