‘Andhvishwas’, a memoir by Almas Ahmad
“भईया इस तरफ़ से चढ़ना और सारी आम, जितनी मिलें, सब ख़त्म कर देना।”
“ठीक है भईया जी।”
“और हाँ! थोड़ा आराम से पैर रखना, किल्ले बचाकर क्योंकि अगले साल इसी में आम आएँगी।”
“ठीक है भईया जी।”
फिर वह दोनों हाथ जोड़कर ‘जय शेरा माँ’ कहते हुए पेड़ पर चढ़ गया। चढ़ते ही बोला, “भईया आप लोग दवा नहीं डालते क्या? लाल चींटे बहुत हैं पेड़ पर।”
“डालते क्यों नहीं हैं! लेकिन ये चौंसा आम है न, बहुत मीठा होता है इसीलिए जितने भी पेड़ पर चढ़ोगे, लाल चींटे मिलेंगे।”
वह डाल पर चढ़ा हुआ, आम नीचे गिराता रहा और अपनी कथा सुनाता रहा, जैसे हर हिन्दुस्तानी सुनाता है। तो क्या हुआ वह मज़दूर है लेकिन है तो हिन्दुस्तानी ही न! कहानियाँ और बातें तो उसकी रग-रग में हैं। शुरू किया उसने मेरे पापा के पैर के दर्द का इलाज बताते हुए कि सायजन या हरिशंकर के पत्ते पीसकर निहार मुँह पियो तो जोड़ों के दर्द से आराम मिल जाएगा या उन्हें कड़वे तेल में गर्म करके पैर पर बाँधो और क्षण भर में आराम पाओ। फिर वह अपने गाँव के बारे में बतियाने लगा।
कुछ देर बाद पापा चले गए। उसने पूछा, “भईया सारे आम तुड़वाओगे? कुछ खाने के लिए नहीं रखने हैं?”
“अरे ये सारी आम खाने के लिए ही तुड़वा रहे हैं क्योंकि आजकल बाग़ में आम मिलती नहीं हैं। जब आओ तो देखो कि बीसियों गायें एक साथ रेला बनाए घूम रही हैं। जिधर से गुज़र जाएँ समझो सत्यानाश! इसीलिए सब तुड़वा लेंगे और क़िस्सा ख़तम।”
“हाँ भईया आपकी बात एकदम सही है, जब से ये सरकार आयी है एक भी फ़सल अच्छी नहीं हुई है। पता है अभी हाल ही में हमारे यहाँ कल्लन के लड़के को पुलिस वालों ने एक रात तक जेल में रखा और ख़ूब मारा सिर्फ़ इस जुर्म में कि उसने एक गाय को डंडा मार दिया था। अब बताओ कोई आदमी फ़सल बचाने के लिए जानवर को भगा भी नहीं सकता। अब गाय को थोड़ी पता है कौन सा खेत हिंदू का है और कौन सा मुसलमान का! वह तो जानवर है, जहाँ कुछ खाने को मिलेगा वहाँ जाएगी। बस इसी बात का फ़ायदा उठाकर आदमी जानवर को खुला छोड़ देता है, क्योंकि वह जानता है कोई मारेगा ही नहीं।”
… “जब भी कोई नयी सरकार आती है, नयी नीति, नयी समिति बनती है किसानों के लिए। मगर हमारे एक बात आज तक समझ में नहीं आयी कि अगर इतना सब कुछ होता है किसानों के लिए तो उनकी हालत जैसे पहले थी वैसी ही आज भी क्यों है? किसान पहले भी आत्महत्या कर रहा था आज भी कर रहा है।”
फिर उसने विषय बदला और मुझसे पूछा, “भईया आपने कौन-कौन सी पिक्चर देखी है?” मेरे कुछ जवाब देने से पहले ही उसने पूछ लिया, “अच्छा ये बताइए शोले में असली में कौन मरता है?” मैं कुछ बोलूँ उससे पहले ही फिर वह बोल पड़ा, “अच्छा ये बताइए आपने लैला-मज्नू देखी है?”
इससे पहले वह कुछ कहता कि मैंने उसे टोका कि, “भाई मैं फ़िल्म नहीं देखता। शोले तक तो समझ में आता है लेकिन लैला-मज्नू और पाकीज़ा! और भईया हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। आप ठहरे चालीस बरस के अधेड़ आदमी। आप के ज़माने में अमिताभ, दिलीप, राजेश खन्ना थे और हमारे ज़माने में संजय, शाहरुख़ और सलमान हैं।”
ख़ैर, इस मामले में हमारी नहीं जमी।
कुछ देर वह शांति से बैठा रहा क्योंकि वह अत्यंत संजीदगी से ‘बाहुबली’ बीड़ी फूँक रहा था। फिर अचानक बोला, “अच्छा भईया ये बताइए, इस सरकार के बारे में आपका क्या ख़्याल है?”
पहले तो मुझे हँसी आयी कि अब सीधे सरकार पर आ गया। लेकिन फिर मैंने सोचा कि इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। हिन्दुस्तान में चाहे कोई भी हो, एक मज़दूर हो, रिक्शावाला हो, दुकानदार हो या मोची हो, आप उससे किसी भी मुद्दे पर चर्चा कर सकते हैं, चाहे मुद्दा राष्ट्रीय हो या अंतरराष्ट्रीय।
कुछ देर तो उसने शांति से आम तोड़े लेकिन आदत से मजबूर वह फिर बोल उठा कि, “भईया जी मैं चेचिस से थोड़ा वैसा लगता हूँ, लेकिन कभी चौकी में कोई काम हो तो बताइएगा। मैं वहीं पास में रहता हूँ, थोड़ी जान-पहचान है अपनी।”
“क्या जान पहचान वह भी पुलिस वालों से न भईया न! अभी पिछले हफ़्ते ही गाँव में दो घरों में लड़ाई हुई थी और पुलिस वालों ने दो सौ रुपए लेकर जिनकी ग़लती नहीं थी उनके घर के एक लड़के को गाँव में सबके सामने पाँच थप्पड़ लगाए थे। और प्रधानी के चुनाव में तो पूर्व प्रधान के लड़के पर फ़र्ज़ी केस थोपकर उसकी ज़मानत ज़ब्त करा दी। इस मामले में तो अगर आप ध्यान से किसी ट्रक के पीछे देखें तो लिखा होता है कि “उचित दूरी बनाए रखें” बस उसी को गाँठ बाँधकर अमल करना चाहिए।”
घंटा भर बाद जब वह पेड़ से नीचे उतरा तो बोला, “भईया ये आम पेड़ के नीचे रख दीजिए।”
मैंने कहा कि, “खाने के लिए छः सात आम अलग रखी हैं बाद में खा लेना।”
उसने कहा, “नहीं भईया, खाने के लिए नहीं, बस आप रख दीजिए वरना मैं अगले पेड़ पर नहीं चढूँगा।”
मैंने सोचा कि क्या अजीब बात है। पूछने पर उसने बताया कि ऐसा करने पर मैं पेड़ से नहीं गिरुँगा। शाम होने पर आप उठा लीजिएगा। आख़िरकार मैंने, यह सोचकर कि एक आम ही तो है, उसे पेड़ के नीचे रख दिया।
साढ़े तीन सौ रुपए में पुल पर मज़दूर मिलते हैं। वो सब-कुछ कर लेते हैं। आप जो चाहें उनसे कराइए। उनसे आम तुड़वाइये या घास साफ़ कराइये, ईंटें उठवाइये या गढ्ढे खुदवाइये या ताजमहल जैसी इमारतें खड़ी करवाइये। कुछ भी, सिर्फ़ साढ़े तीन सौ रुपए हर रोज़ के हिसाब से।
पूरे दिन और पूरी रात मेरे दिमाग़ में उसकी एक ही बात घूमती रही कि “भईया एक आम पेड़ पर रख दीजिएगा।” हँसी भी आ रही थी, लेकिन मैं सोच रहा था कि यह कैसा अंधविश्वास है। मैंने और भी अंधविश्वासों के बारे में सुना है और लोगों को मानते भी देखा है। जैसे पहली बारिश में झाड़ू को आँगन में खड़ा करके रख दो तो अच्छा वर मिलेगा, शादी से एक दिन पहले लड़की को बासी खाना नहीं खिलाना चाहिए वरना शादी में अड़चन आ जाएगी, नीची जाति वालों से मिलोगे या बात करोगे तो भगवान बुरा मान जाएँगे और अगर बिल्ली रास्ता काट जाए तो उस रास्ते से नहीं जाना चाहिए। लेकिन यह पहली बार सुना कि “भईया एक आम पेड़ पर रख दो।”
मैं सोच रहा था कि इक्कीसवीं सदी में भी हमारे देश में ऐसे अंधविश्वासों की कितनी मान्यता है!