1
अन्त के बाद
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।
फिर झगड़ेंगे।
फिर खोजेंगे।
फिर सीमा लांघेंगे।
क्षिति जल पावक
गगन समीर से
फिर कहेंगे—
चलो हमको रूप दो,
आकार दो।
वही जो पहले था
वही—
जिसके बारे में
अन्त को भ्रम है
कि उसने सदा के लिए मिटा दिया।
अन्त के बाद
हम समाप्त नहीं होंगे—
यहीं जीवन के आसपास
मण्डराएँगे—
यहीं खिलेंगे गन्ध बनकर,
बहेंगे हवा बनकर,
छाएँगे स्मृति बनकर
अन्ततः
हम अन्त को बरकाकर
फिर यहीं आएँगे—
अन्त के बाद
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।
2
अन्त के बाद
कुछ नहीं होगा—
न वापसी
न रूपान्तर
न फिर कोई आरम्भ!
अन्त के बाद
सिर्फ़ अन्त होगा।
न देह का चकित चन्द्रोदय,
न आत्मा का अँधेरा विषाद,
न प्रेम का सूर्यस्मरण।
न थोड़े से दूध की हलकी-सी चाय,
न बटनों के आकार से
छोटे बन गए काजों की झुंझलाहट।
न शब्दों के पंचवृक्ष,
न मौन की पुष्करिणी
न अधेड़ दुष्टताएँ होंगी
न वनप्रान्तर में नीरव गिरते नीलपंख।
न निष्प्रभ देवता होंगे,
न पताकाएँ फहराते लफ़ंगे।
अन्त के बाद
हमारे लिए कुछ नहीं होगा—
उन्हीं की लिए सब होंगे
जिनके लिए अन्त नहीं होगा।
अन्त के बाद
सिर्फ़
अन्त होगा,
हमारे लिए।
अशोक वाजपेयी की कविता 'अकेले क्यों'