एक लेखक
जो बस लिखता है
किसी से कुछ नहीं कहता
खीझता है और
लिखी हुई ईप्साओं को फाड़कर
वर्जनाओं के कोने में फेंक देता है
एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति तक
अंतःकरण से निकले शब्दों को
सम्प्रेषित करते-करते
ऊँघ जाता है
यह ऊँघ उसके वर्तमान की है
जब वह देख रहा होता है
आधारबद्ध विवशताएँ,
दुरूह सम्भावनाओं के
अनैतिक आपातकाल
अनुग्रहों की निरर्थकता और
वाचाल कूपाधीशों का कोलाहल
यह ऊँघ उसके भूत की है
जहाँ से वह लाँघता आया है
कुण्ठित तमिस्त्राएँ
तथाकथित अभिजातों के आँगन
अश्वारोहियों के शव
दो जूनों की भूख
प्रस्तावों का अतिशय और
अपने जले हुए प्रार्थनापत्रों से
सारे न्यायालयों की दीवारें लीप आया है
यह ऊँघ उसके अगम्य भविष्य की है
जहाँ वह औचित्य और अनौचित्य के बीच खड़ा
पांडुलिपियाँ पढ़ रहा है
जहाँ वह अभ्यागत है और
अवलेपों और अहनिकाओं के अतिरिक्त
उसे पढ़ने को कुछ नहीं मिलेगा
पूर्वाग्रहों को ढोते प्रस्तर मिलेंगे
उन्हीं प्रस्तरों से वह अपना सिर फोड़ लेगा
और
सम्भावनाओं के डेवढ़ियों पर
मृत प्रहरियों की लाशें देखकर
वापस लौट आएगा
वह इस बात से चिन्तित नहीं है कि
वह कुछ नहीं लिख पाएगा
अपितु उसे यह त्रास खाता रहता है कि
अपनी निरर्थकताओं की बेड़ियाँ
वह अपने आलेखों को ना पहना दे।