पाषाणकाल से अब तक,
तुम ही हो जो मेरे साथ रहे हो।
तुम ही हो जिसने,
सिंधु नदी की गोद में,
मुझे और मेरे पूर्वजों को आश्रय दिया।
बाढ़ और सूखे से रक्षा करके,
तुम बन गए मेरे स्वामी,
तुम्हारे पसीने ने,
नमकीन बनाया मुझे, और तुम्हारे बैलों ने,
मेरे पाताल को मेरा आकाश बना दिया,
तुमने मेरे जीवन को हरियाली दी,
लोग भले तुम्हें किसान कहें,
पर खेतों ने तुम्हें स्वामी ही माना है।
अरे नहीं नहीं!
मैं समझ नहीं पाता,
मैंने तुम्हारी रक्षा की या तुमने मेरी।
मैं भटकता फिरता था जब,
भोजन की तलाश में,
तुमने मुझे अन्न दिया, और
स्थायित्व दिया मेरे जीवन को।
तुमने मृदा दी मेरे बैलों को,
श्रम करने के लिए।
और हाँ!
मेरी लाडली बिटिया है ना,
मुझे मट्ठा और गुड़ देने आती थी
धूप में,
उसके हाथ भी तो तुमने ही पीले किये।
तो मैं स्वामी नहीं,
साझेदार हैं हम दोनों एक दूसरे के,
और अंततः मिल जाना है मुझे भी
तुम में ही मिट्टी होकर!!