मौन में भी एक पुकार है
जो स्थूल कान के सुनने की शक्ति के परे है,
पिंजरे में कैद पक्षी के मौन में भी एक चीख है
बन्धनमुक्त हो जाने की तड़प और कसक है आँखों में उसकी
जो स्थूल आँखों के देखने की शक्ति के परे है,
दिहाड़ी मज़दूर की दो वक़्त की सूखी रोटियाँ
और पेट न पाल पाने की उसकी विवशता
आत्मसम्मान से भरे चेहरे के पीछे छुपी रहती है,
उन कोरी आँखों के पीछे छिपे हुए अश्रु के सागर
देख पाना सम्भव ही नहीं, रीती आँखों के लिए।
दबी, कुचली, दमित और घूँघट में बंद उस स्त्री के मौन में है
एक चीत्कार,
उसकी अधखिली हँसी में भी है एक पीड़ा
जो हर किसी तक पहुँच पाने में है असमर्थ
क्योंकि
वो मौन की पुकार, चीख, चीत्कार के सुनने को
चाहिए एक हृदय जो हो करुणा पुंज
एक सम्वेदना जो हो अन्तहीन।

अनुपमा मिश्रा
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