गूँजती है आवाज़
यदि किसी गहरे कुएँ से,
अँधेरी गुफा से कुछ कहा जाए
प्रतिउत्तर में ध्वनि गूँजती है।
मगर तुम
कभी जवाब नहीं देते
मुझे नगण्य मानते हो
या चाहते हो
परम्परा चलती रहे,
उत्तर की हताशा में
मेरे-तुम्हारे बीच के प्रश्न
खोते चले जाएँ।
तुम्हारा मौन, चिन्तन
स्वामित्वपूर्ण बड़प्पन का भाव
एक आड़ है,
मुझे कचोटने लगे हैं
अपने विचार
यह जानकर कि
मैं उपेक्षित हूँ।
मेरे भीतर के आकाश में
बवण्डर गूँजता है,
आँतों की ऐंठन
कलेजे को कचोटती है,
सुनने की अकुलाहट में
श्रवण-शक्ति सुनती है
स्वयं के प्रश्न
हर बार,
यही इतिहास दुहराया जाता है।
तुम नहीं जानते
वे सब अनुत्तरित प्रश्न
उतनी ही पीड़ा देते हैं
जितना कि
कोई आराधित भाव—
जो अधपुजा ही रह जाए
और असन्तुष्ट भाव से
एक अभिशाप बन जाए।
अगर बन जाऊँ मैं
सनातन परम्परा को
तोड़ने हेतु
तुम्हारे लिए अभिशाप?
गहरे कुएँ तक पहुँचा दूँ
तुम्हारे चिंतन के
आधार-ग्रंथ,
टूटेगा मौन-व्रत
भविष्य की अँधेरी गुफा में
तब
पावन श्रोता
मेरे प्रश्न के उत्तर
तुम अवश्य दोगे
केवल इतना ही नहीं—
उन्हें बार-बार दुहराते रहोगे।
सुशीला टाकभौरे की कविता 'आज की ख़ुद्दार औरत'