मँझली दीदी के यहाँ आए तीन दिन हो गए थे। सुख-सुविधाओं से भरपूर जीवन, शानदार बंगला, लेकिन हर जगह सीलन, एक अजीब-सी गंध, कुछ ऐसी कि जिसमें साँस लेना मुश्किल हो रहा था। कभी लगता था सीलन की गंध है, कभी लगता था दीमक की गंध है। हर दिन, हर पल दीमक का साम्राज्य बढ़ता हुआ, दीदी-जीजाजी के चेहरों से होता हुआ, दिलों से गुज़रता हुआ उनके रिश्ते में घुसता जा रहा था।
“जीजाजी इतनी जल्दी ऑफ़िस क्यों जाते हैं?” मैंने ब्रेड कुतरते हुए अपनी एक्सरे मशीन दीदी की ओर घुमाकर रख दी।
“हाँ”, दीदी का संक्षिप्त जवाब, जो बात को आगे ना बढ़ा सके।
“आते भी देर से हैं.. हमेशा? या आजकल ही?” मैं आज पीछे हटने वाली नहीं थी।
“हमेशा।”, कहीं दूर देखते हुए एक और छोटा-सा जवाब आया। ये मेरी बहन नहीं थी, जो मेरे सामने बैठी थी। मेरे लिए अब बात घुमाना मुश्किल हो रहा था, और बात करना भी।
“दीदी! क्या है ये सब? कैसे रहते हो आप और जीजू, नहीं.. जीजू ठीक हैं, आप ही हो ऐसी।” मैंने जानबूझकर कुरेदा, क्या है जो पकड़ में नहीं आ रहा है?
“हाँ, मैं ही ऐसी हूँ।” स्पष्ट स्वीकारोक्ति.. ये मेरे लिए अप्रत्याशित था!
मँझली दी को मैंने हमेशा आग का मानवीकरण ही माना, तेज-तर्रार, प्रखर बुद्धि की स्वामिनी, आत्मनिर्भर। और आज ये आत्मसमर्पण की मुद्रा में? एक तीर और बचा था मेरे पास, वो भी चलाकर देखना चाहिए।
“सच में, आप ही हो ऐसी… तभी ऐसी मनहूसियत फैली रहती है घर में। बड़ी दीदी के यहाँ का माहौल अलग है। सब कुछ महकता-चहकता, कितना हँसी-मज़ाक चलता रहता है दोनों के बीच, वहाँ मेरा ज़्यादा मन लगता है।”
आख़िरी पंक्ति बोलते हुए मुझे लगा, बात जानने की ज़िद में दीदी का मन तो नहीं दुखा आयी मैं?
“सही कह रही हो छोटी, दीदी के यहाँ का माहौल अलग है। जीजाजी बहुत प्यार करते हैं दीदी को।” ये बात कहते हुए दीदी ने चाय का एक घूँट भरा, चाय की भाप उनकी आँखों में उतर आयी थी!
“दी, मुझे नहीं बताओगी…”, मैंने उनका हाथ पकड़ लिया, “प्यार वाली बात कहाँ से आ गई? आपको भी तो जीजू…”
“नहीं रे!” दीदी ने मेरा हाथ सहलाते हुए कहा, “ये मुझे प्यार नहीं करते…”
मैं अवाक रह गई। इतनी बड़ी बात, दी इतनी सहजता से कैसे बोल गईं? बहुत देर सन्नाटा पसरा रहा। दीदी सम्भलने की कोशिश कर रही थीं और मैं उनके सम्भलने का इंतज़ार। उनके आँसू चाय में गिर रहे थे। चाय ठण्डी होती जा रही थी और सीलन की गंध तेज़ होती जा रही थी।
“आपने कभी उनसे पूछा नहीं?”, मैंने बहुत कोशिश करके ये पाँच शब्द उनके सामने रखे।
“इसमें पूछने जैसी क्या बात है, कारण मुझे पता है…”, दीदी ने मेरी ओर देखते हुए आँसू पोंछे, “जानती हो छोटी, पति कभी भी अपनी पत्नी को नहीं, उसकी दुर्बलता को प्यार करता है। ये दुर्बलता उसके अहं को तुष्ट करती है। वो कुछ ऐसा महसूस करता है जैसे एक अंधे को हाथ पकड़कर सड़क पार करा रहा हो।”
मैंने झटके से हाथ पीछे खींच लिया। ये नहीं हो सकता.. ऐसा हो ही नहीं सकता.. “दी, ये सब फ़ालतू बातें हैं, आप मुझे गोल गोल घुमा रही हैं।”
“ये सच है छोटी।”, एक उदास मुस्कान दीदी के चेहरे पर फैल गई, “तुम बड़ी दीदी की बात कर रही थी ना। दीदी का डर ही उनके रिश्ते को मज़बूत बनाए हुए है। हर बात में ‘मैं ये नहीं कर सकती, मैं वहाँ अकेले नहीं जा सकती, आप बताइए ना ये कैसे होगा, मेरे बस का नहीं’, यही वो कमज़ोरी है जो जीजाजी के अन्दर बैठे पुरुष को सन्तुष्ट करती रहती है, और सब कुछ अच्छा चलता रहता है। तुमने सुना नहीं, जब भी सब लोग इकट्ठा होते हैं, जीजाजी अपनी उपलब्धियों वाली फ़ाइल खोलकर बैठ जाते हैं- ‘बी.ए. करके आयी थी, हमने एम.ए. कराया’ या फिर ‘कार चलाने में हाथ-पैर काँपते थे इसके, हमने ख़ूब प्रैक्टिस करायी’। एक पुरुष अपनी स्त्री को अपने ऊपर निर्भर, डरी हुई, अपाहिज रूप में ही स्वीकार कर पाता है, प्यार कर पाता है, और अगर स्त्री अपाहिज नहीं है तो…”
दीदी की आवाज़ काँपने लगी थी, मैंने उनका हाथ कसकर पकड़ लिया।
“अगर स्त्री अपाहिज नहीं है तो…” मैंने अपने स्वर में भी कम्पन महसूस किया।
“तो वो बहुत जल्दी ऑफ़िस जाता है और बहुत देर से घर आता है।” दीदी पथराई आँखों से मुझे देखते हुए बोलीं, “और समझ में नहीं आता है कि पूरे घर में गंध सीलन की है या दीमक की।”