मैंने कई बार सोचा है
ख़्वाहिशों की तरह पल-पल
बढ़ा जा सकता है
और बलों की तरह
उतनी ही आसानी से काटा भी
जा सकता है
जिसे मैं पहचानती हूँ
पहले से
और जिसे अन्त तक न जानना चाहूँगी
क्योंकि उन पर अब
इमारतें खड़ी हो चुकी हैं
ज़हरीली मुस्कान में मुझे
अपना कँपता शरीर दिखता है
और संजीदगी में
मैंने कुछ बोया था,
हर अख़बार की ख़बर है
यहाँ हर चीज़ का सौदा होता है
और मैं बेख़बर इन बाज़ारों से
निश्चिन्त तो अब बहुत कुछ हो चुका है
जो समयानुकूल है
अनिश्चय में रहने वाले की ट्रेजडी हो सकती है
मैंने छोटे पंजों के सामने
सिर झुकाया
स्पष्ट और साफ़ हैं उनके पंजे
कभी भी कोई बड़ा दिमाग़
अपने समूचे शरीर को एक
जुनून में पेश कर सकता है,
ठुकराया है तुमने सदा अपने को
फ़ेल हो गए हो
और बाहर को अधिक समर्थ पाकर
भीतर घुसना चाहते हो
बिल्ली ने घर के कोने में
बच्चे दिए
मुझे उनकी आवाज़
निर्रथ नहीं लगी
जीने का अपना-अपना फ़ार्मूला
सबके हाथ में है
वैसे मेरे दोनों हाथ ख़ाली हैं
मैं तुम्हें, किसी को भी अपने में भर
अपना ये सहज रंग खोना नहीं चाहती।
शकुन्त माथुर की कविता 'जी लेने दो'