यह कविता यहाँ सुनें:
अपने हिस्से में लोग आकाश देखते हैं
और पूरा आकाश देखे लेते हैं।
सबके हिस्से का आकाश
पूरा आकाश है।
अपने हिस्से का चन्द्रमा देखते हैं
और पूरा चन्द्रमा देख लेते हैं
सबके हिस्से का चन्द्रमा वही पूरा चन्द्रमा है।
अपने हिस्से की जैसी-तैसी साँस सब पाते हैं
वह जो घर के बग़ीचे में बैठा हुआ
अख़बार पढ़ रहा है
और वह भी जो बदबू और गंदगी के घेरे में ज़िन्दा है।
सबके हिस्से की हवा वही हवा नहीं है।
अपने हिस्से की भूख के साथ
सब नहीं पाते अपने हिस्से का पूरा भात
बाज़ार में जो दिख रही है
तन्दूर में बनती हुई रोटी
सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है।
जो सबकी घड़ी में बज रहा है
वह सबके हिस्से का समय नहीं है।
इस समय।
विनोद कुमार शुक्ल की कविता 'प्रेम की जगह अनिश्चित है'