एशट्रे में इकट्ठे हुए सिगरेट के ठूँठों को
चुपचाप गिनने की कोशिश में
वह समय के गुच्छों में उलझी अनेक आकृतियाँ देख रहा है
आँखों में कोई कैमरा-लेंस फ़िट है?
या किसी साँप की आँखों की याददाश्त उसमें घुस गई?
गीली लकड़ी की तरह सुलग रहा है वह
ख़ुशियाँ जो कभी वाचाल और अल्हड़ थीं
उसकी अंतड़ियों के उलझाव में खुबकर
बुदबुदों के बीच ठण्डी हो रही हैं
शीशई-दीवार के उधर वह है
अब मैं उससे उसके जिस्म को अलग करूँगी
पूर्ण जिज्ञासा के साथ देखूँगी
उसका दुःख मेरी शक्ल से कितना मिलता है!
जज़्बात के रेशों के बीच जो अभीष्ट था
काँटों, पत्तों, टहनियों, डण्ठलों ने उसे कितना ढक लिया है?
यूँ क्या, शोर करो, चीख़ो, रोओ और हँसो, दोस्त,
ग़ुस्से को, आक्रोश को पीना अस्वस्थता है
यह पर्यावरण हमारा क्या लेता है?
अकेले तो पहले भी थे, अब भी हैं
तन्हाइयों के बीच जीने वालों के लिए
मुस्कराहट के अनुवाद के कुछ मायने हैं
तुम भूल गये हो, दोस्त!
बहुत सोचकर ही इस महावात्याचक्र को घूरने, ताकने
और समझने का पेशा अख़्तियार किया था हमने
और अब यहाँ समझौते के लिए कोई भी नहीं है।
साभार: किताब: पानी की लकीर | सम्पादन: अमृता प्रीतम | प्रकाशक: चिन्मय प्रकाशन
पुष्पलता कश्यप की कविता 'उतार-चढ़ाव'