तीन-चार पेजों की बीस-इक्कीस कहानियों में अपने समाज की लगभग सारी बुराईयों को पृष्ठ-दर-पृष्ठ उघाड़ देना हरिशंकर परसाई ही कर सकते हैं। और वह भी ऐसी बीमारियाँ जिनसे ग्रस्त होना इस समाज के लिए एक प्रशंसनीय काम हो। हर कोई ये बुराईयाँ स्वार्थ और अनभिज्ञता की घोड़ी पर बैठ सेहरे की तरह बाँधकर चलता है और साथ में अपने कानों में ठूस लेता है रुई के फोहे जिससे बाहर होता शोर भी सुनायी न आए। लेकिन घोड़ी पर बैठा यह नादान मनुष्य भूल गया है कि इस बारात के सबसे दमदार बैंड की अगुवाई परसाई कर रहे हैं जो जब चाहें, यदा-कदा अपनी कलम और लेखन की ऐसी फूंक दूल्हे के कान पर ले जाकर मारते हैं कि घोड़ी बिदके ही बिदके।

परसाई अपनी इस किताब ‘अपनी अपनी बीमारी’ की व्यंग्य कहानियों में उन सब बीमारियों को जाँचते नज़र आते हैं जो हमारे व्यवहार में इस तरह घुल-मिल गयी हैं कि उनके इलाज़ की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती। बल्कि कुछ ऐसी भी बीमारियाँ हैं जिनका यह भी नहीं पता कि वह बीमारी है भी या नहीं। जैसे टैक्स की बीमारी-

“टैक्स की बीमारी की विशेषता यह है कि जिसे लग जाए वह कहता है- हाय, हम टैक्स से मर रहे हैं, और जिसे न लगे वह कहता है- हाय, हमें टैक्स की बीमारी ही नहीं लगती। कितने लोग हैं जिनकी महत्त्वाकांक्षा होती है कि टैक्स की बीमारी से मरें, पर मर जाते हैं, निमोनिया से।”

एक बीमारी है फ़िज़ूल समय काटने की। यह काम ज़्यादातर बुज़ुर्ग लोग करते हैं। विडम्बना है कि उनका सारा जीवन अपने बच्चों के भविष्य को बनाने-संवारने में इस तरह गुज़र जाता है कि बुढ़ापे में उनके पास खुद के लिए करने के लिए भी कोई काम नहीं होता। तभी अपने बच्चों की शादी और शादी के बाद बच्चों की इतनी जल्दी रहती है। जवानों की बात करें, तो आजकल ही देख लीजिए, सोशल मीडिया पर बस अंगूठों को ऊपर से नीचे दौड़ाए जाते हैं और फिर बीच-बीच में टेक देते हैं किसी एक जगह अपनी पसंद दर्ज करने के लिए। पसंद भी केवल नाम की है, ज़्यादातर औपचारिकता। बीच-बीच में लाइक करते रहने से खुद को तसल्ली रहती है कि अंगूठा बेकार नहीं दौड़ रहा है।

पौराणिक कथाओं को नया आयाम देकर प्रशासनिक संस्थाओं पर व्यंग्य हो या फिर टिपिकल प्रेमियों की पेटेंट हो चुकी चिट्ठियों का नमूना पेश करना, इस किताब का कोई पेज व्यंग्य के एक चुटीले बाण के साथ हंसी की फुहार उड़ेले बिना आगे नहीं बढ़ता। एक सरकारी मुलाज़िम के यहां मेहमान बन जाने का किस्सा भी है, जो हर दूसरे मिनट में पूछता है- “और सुनाइए तिवारी जी, दिल्ली के क्या हाल हैं?” और अंग्रेजों के यहां नौकर रहे आचार्यजी के बाग का चित्र भी, जिसके बगीचे के पौधे वे केवल इसलिए नष्ट होने देते हैं कि उन्हें एक्सटेंशन नहीं मिला और उनकी जगह अब कोई और बंगले में आकर रहेगा। बोरियत में बैठे इंसान के मन के भीतर की चित्रावली से लेकर मनुष्य की उच्च स्तर की मक्कारी तक सभी विषयों को परसाई अपने व्यंग्य की सामग्री बनाकर एक ऐसा व्यंजन तैयार करते हैं कि जीभ खुद-ब-खुद चटखारे लेने लगती है।

“एक बात बताऊं? भीम द्रौपदी को बहुत ‘लव’ करता था। पर द्रौपदी ज़रा अर्जुन की तरफ ज़्यादा थी। कृष्ण अर्जुन का बड़ा दोस्त था। और द्रौपदी भी कृष्ण से अपना दुख कहती थी। पता नहीं, क्या गोलमाल था साब। ये कृष्ण था बहुत दंदी-फंदी आदमी। वह होता तो शकुनि की नहीं चलती। वह साफ झूठ बोल जाता था और कहता था कि यही सच है। वह कपट कर लेता था और कहता था कि इस वक़्त कपट करना धर्म है।”

रामकथा क्षेपक‘ और ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर‘ दो ऐसे व्यंग्य हैं जो परसाई को एक महान व्यंग्यकार के रूप में स्थापित करते हैं। व्यंग्य के नाम पर अपने कुंठित मन की भड़ास ‘उच्च स्तरीय’ भाषा में निकालने वाले समकालीन व्यंग्यकारों को एक अभ्यास के तौर पर इन व्यंग्य कहानियों को एक बार पढ़कर ज़रूर देखना चाहिए।

सवा सौ पेजों की यह किताब परसाई की अपनी बिरादरी के लोगों पर भी व्यंग्य करना नहीं भूलती। एवज़ में मुख्य अतिथि बने लेखकों के साथ-साथ सुविधाभोगी लेखकों पर भी जमकर बाण बरसे हैं और राजनेताओं, ब्यूरोक्रेट्स और धार्मिक पाखंडियों की तो परसाई जैसे हर किताब में लॉटरी निकालते हों।

मज़ाक और व्यंग्य के साथ-साथ परसाई के द्वारा उठाए गए सामाजिक विषयों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। एक नागरिक के रूप में ये विषय जब तक किसी लेखक को अंदर से झकझोरते नहीं हैं, लेखक उनपर अपनी कलम नहीं चलाता। परसाई ने इन सभी विषयों पर अपने विश्लेषण को इतनी निर्दयता से, ठोक-पीट कर पेश किया है कि एक नागरिक के रूप में इन मुद्दों को नज़रंदाज़ करने की कोई गुंजाइश नहीं बचती। परसाई के ये व्यंग्य इन सब बीमारियों की चिकित्सा न प्रदान करते हों लेकिन उनके भीतर का एक स्पष्ट और साफ दिखने वाला एक्स-रे ज़रूर खींच देते हैं। व्यंग्य श्रेणी में एक मज़ेदार किताब।

पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!