मैं भाग रही हूँ।

बाहर
अँधेरा हो गया
मेरे रास्तों पर
पर अन्दर अब तक
रोशनी नहीं हुई।

स्मृति में
दबी हुई आग को
अलग कर रही हैं
टूटी हुई टहनियों की तरह
उँगलियाँ

और
ठण्डी राख पर से पोंछ रही हैं
हर चिह्न
हर आहट…

मैं भाग रही हूँ
अपने को उढ़काकर
अपने अन्दर ही

जन्म मुझे दे रहा है
मृत्यु मुझे ले रही है
और जीवन

मानों यह मेरी
अपनी ही अन्यत्रता है।

साभार: किताब ‘आदमी के अरण्य में’ | कवयित्री: अमृता भारती | प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ

अमृता भारती की कविता 'पुरुष-सूक्त : अँधेरे की ऋचा'

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अमृता भारती
जन्म: 16 फ़रवरी, 1939 हिन्दी की सुपरिचित कवयित्री।