सीधी सरपट गली के आख़िरी छोर पर एक घर है, लक्ष्मी वहीं रहती है। गली बहुत संकरी है, लिहाज़ा दुपहिया गाड़ी भी बमुश्किल ही गली से गुज़र पाती है, गली में गोबर की सड़ांध और कचरे की महक बनी रहती है। लक्ष्मी घर में अकेले ही रहती है, उसके पति का स्वर्गवास बहुत समय पहले ही हो चुका है और दो बेटे जो विदेश में सेटल्ड हैं, पर कई साल हो गए किसी ने उसके बेटों को कभी देखा नहीं। लक्ष्मी बहुत ही धार्मिक महिला है, उसकी दिनचर्या लगभग सुनिश्चित है। सुबह चार बजे ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त होकर ही वह चाय पीती है। आज सुबह भी उसी दिनचर्या का पालन किया गया और नियमानुसार वह चाय की प्याली लेकर बरामदे की ओर बढ़ी ही थी कि तभी गली में दो गायें जुगाली करती हुई नजर आ गईं।

अब अगर गो माता सामने खड़ी हों तो बिना उनको कुछ खिलाये या उनकी आवभगत किए बगैर वह चाय कैसे पी सकती है। एकाध घूँट पी चुकी होती तो बात और थी पर अभी तो बस प्याली हाथ में ली ही थी और गौ माता ने दर्शन दे दिए। अगर चाय पी ली और गौ माता के मन में आह गयी तो! नहीं नहीं, उसने बड़े अनुनय विनय के लहजे में कहा, “रुकिए गौ माता, मैं रोटी और गुड़ लेकर अभी आयी।”

लक्ष्मी रात में रोटियाँ बढ़ाकर बनाती है ताकि सुबह-सुबह गली में आने वाले जानवरों के नाश्ते का इंतज़ाम कर पाए। लक्ष्मी बड़े प्रेम से गाय को रोटी खिला ही रही थी कि नंदिनी आ जाती है। नंदिनी लक्ष्मी के घर पर काम करती है पर दोनों में बहुत प्रेम और सामंजस्य है।

“माता जी क्यों रोज़ इतनी रोटियाँ बनाकर रखती हो? खाने वाला घर में कोई नहीं और आप चार जन का भोजन पकाकर अपने आप को बेवजह तकलीफ देती हो”, नंदिनी ने तुनक कर कहा।

“अरे तू अपना काम कर, मुझे अपना काम करने में कोई तकलीफ नहीं होती।”

नंदिनी ने अब जैसे कान में रूई डाल ली क्योंकि उसे पता था कि अब माता जी बड़ी देर तक कथा बाचने वाली हैं।

लक्ष्मी अकेले ही रहती है तो उसके होंठ मानो सिले से रहते हैं। जब नंदिनी आ जाती है तो वो दिल खोलकर उससे बातें करती है जिसमें हिदायत, डांट, सुझाव, सलाह सब कुछ पर्याप्त मात्रा में शामिल रहता है। इस तरह से लक्ष्मी अपने दिल को हल्का कर लेती है। सब्जी या फल वाला आ जाये तो उसे भी अपना मेहमान मानकर चाय-पानी करा ही देती थी।

नन्दिनी- “माता जी आपके बच्चे तो विदेश में रहते हैं ना! आप भी विदेश क्यों नहीं चली जातीं? ठाठ से रहतीं, घूमती फिरतीं। यहाँ क्यों अपने जान की जहमत करती हैं।”

“ये घर तो अब मरने के बाद ही छूटेगा”, लक्ष्मी ने लम्बी साँस लेते हुए कहा। खुद को संभालते हुए पुरानी यादों में गुम सी हो जाती है- “दिनेश छोटा था तो बहुत ही प्यारा लगता था। उसे दूध, दही सब पसन्द था। दूध जैसा उजला रंग भी तो है उसका और महेश को चटपटा बहुत पसंद था, दूध की तो महक भर से चिढ़ जाता था। बड़ी परेशान रहती थी मैं कि इसका शरीर कैसे सुधरेगा”, कहते हुए उसकी आँखों में पानी आ जाता है।

नन्दिनी टुकटुकी लगाए उसकी बातों में खो जाती है, फिर अचानक सुध पाकर कहती है, “अरे माता जी आपकी बातों के चक्कर में तो मेरा बहुत समय लग गया। आप कभी भईया लोगों को बुलाइये, कभी उनको देखा नहीं। कैसे बेटे हैं कि कभी माँ की याद भी नहीं आती, कभी आपको फोन पर बात करते भी नहीं सुना।”

“चल तू बड़ी जासूस बनती है, क्या तुझे सुनाकर बात करूँगी क्या?” झुंझलाते हुए लक्ष्मी ने कहा, “विदेश से आने में लाखों रुपये का खर्च पड़ता है सो मैं ही मना कर देती हूँ। क्या ज़रूरत है फालतू पैसे बर्बाद करने की। मैं सही सलामत हूँ ही और इनकी पेंशन से मेरा काम आराम से चल जाता है, पर बच्चे भी इतने ज़िद्दी ठहरे कि बिना पैसे भेजे मानते ही नहीं।” कहते हुए लक्ष्मी टकटकी लगाकर आकाश की तरफ देखने लगती है।

“अच्छा माता जी चलूँ अब और जगह भी तो जाना है।”

“अरे रुक जा कुछ खा ले फिर जाना, देख कैसी सूखती जा रही है, अरे कमज़ोर हो जाएगी तो काम कैसे करेगी?” माता जी ने हक जताते हुए कहा।

नंदिनी खा पीकर चली जाती है। उसे एक अजीब मायूसी और मनहूसियत सी महसूस होती है जब वो लक्ष्मी के घर जाती है, घर जैसे सांय-सांय करता है, कभी कोई आता जाता भी नहीं, पता नहीं कैसा घर है वो रास्ते भर यही सब मन में सोचती रहती है।

लक्ष्मी बहुत पूजा-पाठ करती थी और पूजा के कमरे की सफाई का जिम्मा भी उसने खुद पर लिया हुआ था। यही एक काम था जिसमें वो किसी और की मदद तक नहीं लेती थी। नंदिनी को पूजा घर में जाने की अनुमति नहीं थी, इस बात से उसे बड़ी गुरेज़ थी कि जाने क्यों झांकने तक नहीं देती पूजा घर में।

सुबह-सुबह लक्ष्मी की पूजा का समय हो चलता है, वो पूजा के लिए बैठी ही थी कि ज़ोर की आवाज़ के साथ खिड़की के काँच टूटने की पुष्टि हो जाती है। हे भगवान ये बच्चे भी सुबह-सुबह ही शुरू हो जाते हैं, ज़रूर गेंद आयी है अंदर। अब डांट लगाऊँ या ऐसे ही दे दूँ गेंद, वह दुविधा में गेट के पास जाती है। छुट्टी के दिन तो कई कई बार गेंद उसके घर के अंदर आ ही जाती थी जैसे कोई कबड्डी का खिलाड़ी विरोधी टीम की लाख कोशिशों को विफल करते हुए पाला छू ही जाता है। बच्चे उसके गेट पर आने की प्रतीक्षा में गेट पर थक कर धराशायी से मालूम पड़ रहे थे। लक्ष्मी की नज़र पड़ते ही सब तपाक से उठ खड़े होते हैं- “दादी जी बॉल दे दीजिए, अब नहीं आएगी इधर।”

अरे तुम लोगों का तो रोज़ का हो गया है, मैं परेशान हो गयी हूँ, जाओ आधे घंटे के बाद आना तब मिलेगी गेंद, तब तक मैं पूजा तो कर लूंगी चैन से।

तभी एक छोटा बच्चा जो इस मुहल्ले में नया लग रहा था, अपनी मीठी आवाज़ में बोला, “प्लीज दादी, गेंद दे दो ना”।

उसकी आवाज़ सुनते ही पता नहीं क्यों लक्ष्मी का दिल पसीज जाता है, उस बच्चे की चेहरे की कांति लक्ष्मी के मन को मोह रही थी। उसकी ममता उमड़ रही थी, जाने कैसा लगाव महसूस हो रहा था उसे।

“अच्छा ठहरो अभी लाती हूँ पर खेलने के बाद मुझसे मिलने आओगे”, वो तोतली ज़बान में बोल पड़ी।

बच्चा पहले तो ठिठकता है फिर गेंद के विषय में आश्वस्त होने के लिये हाँ कर देता है।

बच्चों को खेलकर गए हुए बहुत देर हो जाती है। लक्ष्मी बड़ी बेसब्री से उस बच्चे का इंतज़ार करती रहती है। हालांकि उसे यकीन था कि वो नहीं आएगा फिर भी वो खुद को इंतज़ार करने से रोक पाने में असमर्थ थी। नंदिनी ने मालकिन की आँखों में ऐसी बेसब्री पहले कभी देखी नहीं थी।

“माता जी क्या बात है कोई आने वाला है क्या? आप दरवाज़े की तरफ ही नज़रें गड़ाकर बैठी हैं,” नंदिनी ठहाके लगाते हुए कहती है, “पाँच साल से आपके यहाँ काम कर रही हूँ, आज पहली बार ऐसा लग रहा है कि आप किसी का इंतज़ार कर रहीं हैं, सच बताइये भइया लोग आ रहे हैं क्या?”

“तू अपना काम कर,” लक्ष्मी मुँह बिचकाते हुए कहती है, “कोई नहीं आ रहा। मैंने तो यूँ ही उस छोटे बच्चे को आने का न्योता दे डाला पर है तो वो बच्चा ही, भूल गया होगा या उसे गेंद मिल गयी तो अब आकर क्या करेगा!”

लक्ष्मी मायूसी के साथ किचन की ओर बढ़ती है तभी दरवाज़े पर दस्तक होती है, लक्ष्मी का दिल ज़ोर से धड़क उठता है।

“वही होगा, तू अपना काम कर, मैं जाकर देखती हूँ,” लक्ष्मी के चेहरे का भाव बता रहा था कि वो कितनी खुश है। इतनी खुशी उसे बरसों बाद मिली थी, वह खुद को समेटते हुए दरवाज़े तक पहुंचती है, बच्चा गेट में मुँह सटाये खड़ा था।

“खोलिये, मैं कब से खड़ा हूँ,” उसकी आवाज़ सुनकर लक्ष्मी के कलेजे में अजीब सी ठंडक पड़ रही थी।

“आओ अंदर, मम्मी से पूछकर आये हो ना?”

“नहीं, उनसे पूछता तो मना कर देतीं, मैने तो आपसे प्रोमिस किया था इसलिए नहीं पूछा”।

“अरे! फिर तुम्हें डाँट पड़ी तो? चलो कोई बात नहीं, मैं तुम्हें ज़्यादा देर नहीं रोकूंगी। तुम्हारा नाम क्या है बेटा?”

“मेरा नाम सूरज है, मैं यहाँ कुछ दिन पहले ही आया हूँ।”

“ओह तभी तुम्हें पहले कभी नहीं देखा,” लक्ष्मी उसके चेहरे को निहारती रही, “कितने साल के हो तुम?” लक्ष्मी ने उत्सुकतापूर्वक पूछा। वो सूरज के बारे में सब कुछ जान लेना चाहती थी, क्या पता फिर वो आ पाए या नहीं।

“मम्मी तो कहती हैं, मैं 6 साल का हूँ।”

“ओह! तुम तो अभी बहुत छोटे हो, रुको मैं तुम्हारे लिए बिस्किट लाती हूँ।”

सूरज नाक भौंह सिकोड़ने लगता है, “मुझे बिस्कुट पसंद नहीं, हाँ अगर आप चॉकलेट देंगी तो मैं ले लूंगा”।

ओह! लक्ष्मी को नए मेहमान का आवभगत न कर पाने का दुख सताने लगा, “अगली बार जब तुम आओगे तब तुम्हें चॉकलेट ज़रूर दूँगी, अच्छा अब तुम जाओ वरना तुम्हारी मम्मी परेशान होंगी।”

सूरज को जाते देख लक्ष्मी की आँखों में आंसू आ जाते हैं, वो सोच में पड़ जाती है, इस बच्चे को तो वो कल तक जानती तक नहीं थी, फिर उसके जाने से उसे तकलीफ क्यों हो रही है और इतना अपनापन था इस बच्चे में। लक्ष्मी के मन की सूखी बगिया में जैसे सावन की ठंडी फुहार सी पड़ गयी। वो दुखी तो थी पर उसके मन में एक आस भी पल गयी कि सूरज फिर आएगा उससे मिलने।

नंदिनी यह सब देख रही थी, पर लक्ष्मी की आँखों में पानी देखना अब उसके लिए रोज़ की बात थी।

“आप कितनी भावुक हैं, बात-बात पर आँखें भीग जाती हैं आपकी, मैं नहीं रोती, क्यों रोना है, रोकर कुछ नहीं मिलता” और फिर ठहाके लगाते हुए कहती है, “हाँ सिर दर्द ज़रूर मिलता है”।

नंदिनी अपने घर की तरफ बढ़ रही थी, वो खुद को बहुत प्रैक्टिकल और मजबूत समझती है लेकिन आज की घटना से उसका मन भर आया। मन ही मन वो सोचती है कि माता जी के बेटे उन्हें पूछते तक नहीं वरना अपने पोते को खिलाती या दूसरे के बच्चों में अपने पोते को ढूंढती, खैर मुझे क्या लेना- देना, उनका अपना निजी मामला है।

समय बीत रहा था, लक्ष्मी कमज़ोर होने लगी, उसकी तबियत भी खराब रहने लगी, उसके चेहरे पर एक आस और एक उदासी का डेरा रहने लगा। वह अपने कमरे में लेटी थी, तभी दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ सुनाई देती है, वो सोचती है, काश कि सूरज हो पर नंदिनी को देखकर उदास हो जाती है,

“अरे तू है! आज तूने बड़ी देर कर दी, मुझे लगा तू नहीं आएगी।”

“लगता है आप मुझे देखकर खुश नहीं हुईं, क्या करूँ चली जाऊँ क्या!” नंदिनी चुटीले अंदाज़ में कहती है।

“अरे नहीं, तू चली जाएगी तो घर ऐसे ही पड़ा रहेगा, बर्तन जूठे पड़े रहेंगे, रसोई कौन साफ करेगा, बरामदे की कुर्सियों पर धूल की परत जमी है, घर के पीछे जो खाली जगह पड़ी है वहाँ भी जाकर देख कितना गन्दा हो गया है, ये सब कैसे साफ होगा।”

नन्दिनी व्यंगात्मक लहजे में पूछ उठती है- “और पूजा घर?”

नंदिनी लक्ष्मी की आंखों में देखती रही, लक्ष्मी सकपका के अपनी नज़रें नीचे कर लेती है और दबी हुई आवाज़ में कहती है- “वो मैं कर लूँगी।”

“आपका पूजा घर आज तक नहीं देखा, क्या है ऐसा क्या है वहाँ, भगवान ही हैं ना?” कहते हुए व्यंगात्मक हँसी उसके होंटो से फिसल पड़ती है।

“तू हंसती बहुत है। जा जाकर अपना काम कर, देर हो रही है।”

“अरे माता जी देख रही हूँ दो दिन से आप खिचड़ी ही खा रही हैं, क्या बात है रुकिए आपका फ्रिज देखूं, सब्ज़ियां न हो तो ला दूँ?” कहकर वह फ्रिज में झांकती है, वहाँ ऊपर के रैक पर कुछ चॉकलेट्स पड़ी हैं।

“ओह तो आजकल आप चॉकलेट्स खा रही हैं इसीलिए खाना नहीं खा रहीं।”

“चुप हो जा”, लक्ष्मी खीझते हुए कहती है।

“ये सूरज के लिए है ना,” नन्दिनी सकुचाते हुए पूछती है।

“अरे नहीं ऐसे ही ला दिया कभी कोई बच्चा घर में आ जाये तो होना चाहिए ना। आजकल तो बच्चों को यही सब पसंद होता है?”, वह उत्सुकता से पूछती है, नन्दिनी इस बार सिर्फ सिर हिलाकर हामी भर देती है और अपना काम निपटाने में लग जाती है।

लगभग दो हफ्ते बीत गए। लक्ष्मी फिर क्षीण पड़ने लगी। उसे सूरज के आने का इंतज़ार सता रहा था, दोपहर का वक़्त था, लक्ष्मी बेचैन हो उठी, अकेलापन उस पर हावी हो रहा था। अब तक तो जैसे तैसे जी रही थी पर अब ये इंतज़ार उसका जीना दूभर कर रहा था, वह अपना मन मसोस कर रह जाती है, काश उस बच्चे को कभी घर बुलाया ही न होता तो अच्छा था। ये द्वंद उसके मन में हलचल मचाये हुए था कि तभी दरवाज़े की खटखट से वह हड़बड़ा उठती है। अब इस वक़्त कौन हो सकता है? क्या सूरज? नहीं नहीं अपने प्रश्न को निरर्थक मानते हुए अपने कयास की दिशा बदलती है, शायद बिजली का बिल देने आया हो, इस महीने अब तक मीटर रीडिंग के लिए नहीं आया, अभी डाँट लगाती हूँ, हर काम अपने समय पर होना चाहिए। ये सोचकर वो आगे बढ़ती है और वहाँ सूरज को देखकर हैरान हो जाती है। शायद प्रकृति ने उसका संदेश सूरज तक पहुँचा दिया होगा वरना आज उसके मन की विह्वलता को दूर करने सूरज कैसे आता भला।

अब लक्ष्मी सारे शिकवे गिले भूल गयी। उसका मन बड़ा आह्लादित था।

“अंदर आओ बेटा, रुको मैं पहले तुम्हारा चॉकलेट लेकर आती हूँ वरना भूल गयी तो मन बड़ा पछताएगा”।

“वाह मैं जानता था कि आप चॉकलेट ज़रूर लायी होंगी”।

“अच्छा तुम्हें कैसे पता चला?”

“क्योंकि आप मुझसे बहुत प्यार करती हैं। क्यों?”

अब वह हठ करने लगा, “बोलिये ना आप मेरी दादी हैं ना?”

लक्ष्मी का कलेजा बाहर आने लगता है, पर खुद को संभालते हुए वो कहती है, “नहीं बेटा, तुम्हारी दादी तो होंगी न घर पर, मैं तो बस दादी जैसी हूँ।”

सूरज उदास होकर मुँह लटका लेता है, “मेरी दादी नहीं हैं, मैंने कभी उन्हें नहीं देखा।”

ओह इस दुनिया में कोई सुखी नहीं!

“कोई बात नहीं बेटा, तुम मुझे अपनी दादी जैसा ही समझो।”

लक्ष्मी सूरज के साथ हंसती भी है, बच्चों जैसे खिलखिलाती भी, जैसे मृत होते हुए पौधे को एक ठंडी पानी की बौछार नवजीवन देती है और वह जीवन्त हो उठता है ।

“बाकी बातें छोड़ो और ये बताओ कि अब कब आओगे फिर चॉकलेट खाने?”

“जल्दी ही आऊँगा दादी माँ, पर सिर्फ चॉकलेट खाने नहीं, आपके साथ खेलने के लिए भी।”

दौड़ते हुए वह बूढ़ी आँखों से ओझल हो जाता है जैसे उमस भरी गर्मी में ठंडी हवा का एक झोंका आकर फिर गायब हो जाता है। पर ये क्षणिक सुख भी लक्ष्मी के लिए स्वर्गिक आनन्द से कम न था। आज उस नन्हे मेहमान को कुछ खिलाकर वह परिपूर्ण और धन्य सा महसूस कर रही थी। पर अब पता नहीं कब आएगा।

दिन ढलने लगे, महीने बीत गए, लक्ष्मी की भूख मिटने लगी, उसकी काया कृश पड़ने लगी, आँखों के नीचे काले घेरों ने स्थायी निवास सा बना लिया, कमज़ोरी से उसका शरीर कंकाल बनता जा रहा था।

अब नन्दिनी से रहा नहीं जा रहा था, वह इसका कारण भी जानती थी।

“क्या माता जी आप क्यों उस बच्चे में अपनी जान बसाकर बैठी हैं, जिसका कोई भरोसा नहीं कि वो आएगा भी या नहीं, उसका पता बताइये तो उसको जाकर ले आऊँ, आपकी हालात तो बिगड़ती जा रही है, डॉक्टर को बुला दूँ क्या?”

लक्ष्मी साफ मना कर देती है।

“हाँ डॉक्टर आकर भी क्या करेगा, आप उस बच्चे की वजह से उपवास किये बैठी थी तो वो क्या कर लेगा। रुकिए मैं सारा काम निपटा लूँ, फिर आपके लिए कुछ बना दूँ।”, नंदिनी बड़बड़ाते हुए काम में लग जाती है।

अब सारा काम खत्म हो चुका है और खाना भी बन गया था पर क्या पूजा घर साफ नहीं होगा आज वह मन में बुदबुदाने लगती है, ये तो पगला ही गयी हैं अगर इनसे पूछूँगी तो साफ मना कर देंगी।

वह खुद पूजा घर की सफाई का निर्णय लेती है पर मन झिझकता है- बिना पूछे कैसे प्रवेश करूँ, ये इतना रोकती हैं। कुछ देर की मानसिक जद्दोजेहद के बाद उसने फैसला किया कि एक आवाज़ देकर सीधा पूजा के कमरे में चली जाऊंगी, सारे घर की सफाई हो गयी, भगवान के स्थान को गन्दा कैसे छोड़ दूँ, अब माता जी के बस का तो नहीं दिखता मुझे।

“माता जी अब आपसे कुछ न होगा, एक खाना बनानेवाली रख लो, आपको आराम हो जाएगा और मंदिर क्या आज साफ न होगा, मैं जाकर साफ कर देती हूँ।”

लक्ष्मी घबरा कर उठने का प्रयास करती है, पर अब उसके शरीर मे कुछ शेष न बचा था एक आस के सिवा, सूरज का इंतज़ार। वो उसे एक आखिरी बार देखना चाहती थी, पर अब तो सब कुछ छूटता हुआ दिख रहा था उसे, मुँह से आवाज़ भी नहीं निकल पा रही थी। उसके बिस्तर से उठने के सारे प्रयास विफल हो जाते हैं और हिम्मत हारकर वो बस दरवाज़े की तरफ टकटकी लगाये हुए थी।

नन्दिनी अंदर जाकर देखती है तो दंग रह जाती है, भगवान के अलावा, वहाँ तीन और तस्वीरें टंगी थी। सभी पर हार लटक रहा था, एक तो उनके पति की तस्वीर थी और बाकी दो उनको दोनों बेटों की।

हाय! यह क्या देख लिया मैंने, ये सब क्या है।

उसे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था, जिन बच्चों की चर्चा वो रोज़ सुन रही थी वो इस दुनिया के बाशिंदे नहीं रह गए थे। माता जी ने बताया क्यों नहीं, कब हुआ है ये सब, हमेशा तो ठीक ठाक ही लगती थी, बहुत सारे प्रश्नों की फेहरिस्त सी लग गयी उसके मन में। जाकर पूछती हूँ, मुझे भी अपना न समझा। उसके हाथ पैर सुन्न पड़ रहे थे किसी तरह वो लक्ष्मी के पास आई और उन्हें देखते ही उसकी चीख निकल पड़ी। लक्ष्मी का शरीर ठंडा पड़ चुका था, उसकी आंखें खुली थी और वो किसी बेगाने के इंतज़ार की कहानी बयान कर रही थीं।

अब सारे प्रश्न प्रश्न ही रहने वाले थे, नन्दिनी की आंखों से अश्रुधार बह पड़ी।

कुछ समय बाद लक्ष्मी के दूर के रिश्तेदारों से उसे मालूम हुआ कि उसके दोनो बेटों की मृत्यु एक प्लेन क्रैश में हो गयी थी। इस घटना को लगभग दस साल गुजर चुके थे, लक्ष्मी को उसके बच्चों के अंतिम दर्शन भी नहीं हुए थे।

उन आँखों में आख़िरी वक़्त भी एक लंबा इंतज़ार पसरा रहा।

अनुपमा मिश्रा
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