कौन कहता है कि तुमको खा सकेगा काल?
अरे तुम हो काल के भी काल अति विकराल
काल का तब धनुष, दिक् की है धनुष की डोर
धनु-विकंपन से सिहरती सृजन-नाश-हिलोर!
तुम प्रबल दिक्-काल-धनु-धारी सुधन्वा वीर
तुम चलाते हो सदा चिर चेतना के तीर!

क्या बिगाड़ेगा तुम्हारा, यह क्षणिक आतंक?
क्या समझते हो कि होगे नष्ट तुम अकलंक?
यह निपट आतंक भी है भीति-ओत-प्रोत!
और तुम? तुम हो चिरंतन अभयता के स्त्रोत!
एक क्षण को भी न सोचो कि तुम होगे नष्ट,
तुम अनश्वर हो! तुम्हारा भाग्य है सुस्पष्ट!

चिर विजय दासी तुम्हारी, तुम जयी उद्बुद्ध,
क्यों बनो हट आश तुम, लख मार्ग निज अवरुद्ध?
फूँक से तुमने उड़ाई भूधरों की पाँत।
और तुमने खींच फेंके काल के भी दाँत
क्या करेगा यह बिचारा तनिक सा अवरोध?
जानता है जग तुम्हारा है भयंकर क्रोध!

जब करोगे क्रोध तुम, तब आएगा भूडोल,
काँप उठेंगे सभी भूगोल और खगोल,
नाश की लपटें उठेंगी गगन-मंडल बीच;
भस्म होंगी ये असामाजिक प्रथाएँ नीच!
औ पधारेगा सृजन कर अग्नि से सुस्नान;
मत बनो गत आश! तुम हो चिर अनंत महान!

बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
बालकृष्ण शर्मा नवीन (1897 - 1960 ई०) हिन्दी कवि थे। वे परम्परा और समकालीनता के कवि हैं। उनकी कविता में स्वच्छन्दतावादी धारा के प्रतिनिधि स्वर के साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना, गांधी दर्शन और संवेदनाओं की झंकृतियां समान ऊर्जा और उठान के साथ सुनी जा सकती हैं। आधुनिक हिन्दी कविता के विकास में उनका स्थान अविस्मरणीय है।