माई लार्ड! अबके आपके भाषण ने नशा किरकिरा कर दिया। संसार के सब दुःखों और समस्त चिन्ताओं को जो शिवशम्भु शर्मा दो चुल्लू बूटी पीकर भुला देता था, आज उसका उस प्यारी विजया पर भी मन नहीं है। आशा से बँधा हुआ यह संसार चलता है। रोगी को रोग से, कैदी को कैद से, ऋणी को ऋण से, कंगाल को दरिद्रता से, – इसी प्रकार हरेक क्लेशित पुरुष को एक दिन अपने क्लेश से मुक्त होने की आशा होती है। चाहे उसे इस जीवन में क्लेश से मुक्ति न मिले, पर आशा के सहारे इतना होता है कि वह धीरे-धीरे अपने क्लेशों को झेलता हुआ एक दिन इस क्लेशमय जीवन से तो मुक्त हो जाता है। पर हाय। जब उसकी यह आशा भी भंग हो जाय, उस समय उसके कष्ट का क्या ठिकाना! –

“किस्मत पे उस मुसाफिरे खस्ता के रोइये।
जो थक गया हो बैठ के मंजिल के सामने।”

बड़े लाट होकर आपके भारत में पदार्पण करने के समय इस देश के लोग श्रीमान्-से जो जो आशाएं करते और सुखस्वप्न देखते थे, वह सब उड़नछू हो गये। इस कलकत्ता महानगरी के समाचार-पत्र कुछ दिन चौंक चौंक पड़ते थे कि आज बड़े लाट अमुक मोड़ पर वेश बदले एक गरीब काले आदमी से बातें कर रहे थे, परसों अमुक आफिस में जाकर काम की चक्की में पिसते हुए क्लर्को की दशा देख रहे थे और उनसे कितनी ही बातें पूछते जाते थे। इससे हिन्दू समझने लगे कि फिर से विक्रमादित्य का आविर्भाव हुआ या अकबर का अमल हो गया। मुसलमान खयाल करने लगे, खलीफा हारूंरशीद का जमाना आ गया। पारसियों ने आपको नौशीरवाँ समझने की मोहलत पाई थी या नहीं, ठीक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि श्रीमान् ने जल्द अपने कामों से ऐसे जल्दबाज लोगों को कष्ट-कल्पना करने के कष्ट से मुक्त कर दिया था। वह लोग थोड़े ही दिनों में इस बात के समझने के योग्य हो गये थे कि हमारा प्रधान शासक न विक्रम के रंग-ढंग का है, न हारूं या अकबर के, उसका रंग ही निराला है। किसी से नहीं मिलता।

माई लार्ड! इस देश की दो चीजों में अजब तासीर है। एक यहां के जलवायु की और दूसरे यहां के नमक की, जो उसी जलवायु से उत्पन्न होता है। नीरस से नीरस शरीर में यहां का जलवायु नमकीनी ला देता है। मजा यह कि उसे उस नमकीनी की खबर तक नहीं होती। एक फारसी का कवि कहता है कि हिन्दुस्तान में एक हरी पत्ती तक बेनमक नहीं है, मानो यह देश नमक से सींचा गया है। किन्तु शिवशम्भु शर्मा का विचार इस कवि से भी कुछ आगे है। वह समझता है कि यह देश नमक की एक महाखानि है, इसमें जो पड़ गया, वही नमक बन गया। श्रीमान् कभी चाहें तो सांभर-झील के तट पर खड़े होकर देख सकते हैं, जो कुछ उसमें गिर जाता, वही नमक बन जाता है। यहां के जलवायु से अलग खड़े होकर कितनों ही ने बड़ी-बड़ी अटकलें लगाई और लम्बे चौड़े मनसूबे बांधे पर यहां के जलवायु का असर होते ही वह सब काफूर हो गये।

अफसोस माई लार्ड! यहां के जलवायु की तासीर ने आप में अपनी पिछली दशा के स्मरण रखने की शक्ति नहीं रहने दी। नहीं तो अपनी छ: साल पहले की दशा से अब की दशा का मिलान करके चकित होते। घबराके कहते कि ऐं! मैं क्या हो गया? क्या मैं वही हूँ, जो विलायत से भारत की ओर चलने से पहले था? बम्बई में जहाज से उतरकर भूमि पर पांव रखते ही यहां के जलवायु का प्रभाव आप पर आरम्भ हो गया था। उसके प्रथम फलस्वरुप कलकत्ते में पदार्पण करते ही आपने यहां के म्यूनिसिपल कारपोरेशन की स्वाधीनता की समाप्ति की। जब वह प्रभाव कुछ और बढ़ा तो अकाल पीड़ितों की सहायता करते समय आपकी समझ में आने लगा कि इस देश के कितने ही अभागे सचमुच अभागे नहीं, वरंच अच्छी मजदूरी के लालच से जबरदस्ती अकाल पीड़ितों में मिलकर दयालु सरकार को हैरान करते हैं। इससे मजदूरी कड़ी की गई।

इसी प्रकार जब प्रभाव तेज हुआ तो आपने अकाल की तरफ से आंखों पर पट्टी बांधकर दिल्ली-दरबार किया।

अन्त को गत वर्ष आपने यह भी साफ कह दिया कि बहुत से पद ऐसे हैं जिनको पैदाइशी तौर से अंग्रेज ही पाने के योग्य हैं। भारतवासियों को सरकार जो देती है, वह भी उनकी हैसियत से बढ़कर है। तब इस देश के लोगों ने सबक लिया था कि अब श्रीमान्-पर यहां के जलवायु का पूरा सिक्का जम गया। उसी समय आपको स्वदेश-दर्शन की लालसा हुई। लोग समझते चलो अच्छा हुआ, जो हो चुका, वह हो चुका, आगे की तासीर की अधिक उन्नति से पीछा छूटा। किन्तु आप कुछ न समझे। कोरिया में जब श्रीमान् की आयु अचानक सात साल बढ़कर चालीस हो गई, उस समय भी श्रीमान् की समझ में आ गया था कि वहीं की सुन्दर आवहवा के प्रताप से आप चालीस साल के होने पर भी बत्तीस-तेंतीस के दिखाई देते हैं। पर इस देश की आवहवा की तासीर आपके कुछ समझ में न आई। वह विलायत में भी श्रीमान् के साथ लगी गई और जबतक वहां रहे, अपना जोर दिखाती रही। यहां तक कि फिर आपको एक बार इस देश में उठा लाई, किसी विघ्न-वाधा की परवा न की।

माई लार्ड! इस देश का नमक यहां के जलवायु का साथ देता है, क्योंकि उसी जलवायु से उसका जन्म है। उसकी तासीर भी साथ साथ होती रही। वह पहले विचार-बुद्धि खोता है। पीछे दया और सहृदयता को भगाता है और उदारता को हजम कर जाता है। अन्त को आंखों पर पट्टी बांधकर, कानों में ठीठे ठोककर, नाक में नकेल डालकर, आदमी को जिधर तिधर घसीटे फिरता है और उसके मुंह से खुल्लम खुल्ला इस देश की निन्दा कराता है। आदमी के मनमें वह यही जमा देता है कि जहां का खाना, वहां की खूब निन्दा करना और अपनी शेखी मारते जाना। हम लोग उस नमक की तासीर से बेअसर नहीं हैं। पर हमारी हड्डियां उसी से बनी हैं, इस कारण हमें इतना ज्ञान रहता है कि हमारे देश के नमक की क्या तासीर है। हम लोग खूब जानते थे कि यदि श्रीमान् कहीं दूसरी बार भारत में आ गये तो एक दम नमक की खानि में जाकर नमक हो जावेंगे। इसी से चाहते थे कि दोबारा आप न आवें। पर हमारी पेश न गई। आप आये और आते ही उस नमक की तासीर का फल अपने कौंसिल और कानवोकेशन में प्रगट कर डाला।

इतने दिन आप सरकारी भेदों के जानने से, अच्छे पद पाने से, उन्नति की बातें सोचने से, सुगमता से शिक्षा लाभ करने से, अपने स्वत्वों के लिये पार्लीमेण्ट आदि में पुकारने से, इस देश के लोगों को रोकते रहे। आपकी शक्ति में जो कुछ था, वह करते रहे। पर उसपर भी सन्तोष न हुआ, भगवान की शक्ति पर भी हाथ चलाने लगे। जो सत्यप्रियता इस देश को सृष्टि के आदि से मिली है, जिस देश का ईश्वर “सत्यंज्ञानमनन्तम्ब्रह्म” है, वहां के लोगों को सभा में बुला के ज्ञानी और विद्वान् का चोला पहनकर उनके मुंह पर झूठा और मक्कार कहने लगे। विचारिये तो यह कैसे अधःपतन की बात है? जिस स्वदेश को श्रीमान् ने आदर्श सत्य का देश और वहां के लोगों को सत्यवादी कहा है, उसका आला नमूना क्या श्रीमान् ही हैं? यदि सचमुच विलायत वैसा ही देश हो, जैसा आप फरमाते हैं और भारत भी आपके कथनानुसार मिथ्यावादी और धूर्त देश हो, तो भी तो क्या कोई इस प्रकार कहता है? गिरा के ठोकर मारना क्या सज्जन और सत्यवादी का काम है? अपनी सत्यवादिता प्रकाश करने के लिये दूसरे को मिथ्यावादी कहना ही क्या सत्यवादिता का सबूत है?

माई माई लार्ड! जब आपने अपने शासक होने के विचार को भूलकर इस देश की प्रजा के हृदय में चोट पहुंचाई है तो दो एक बातें पूछ लेने में शायद कुछ गुस्ताखी न होगी। सुनिये, विजित और विजेता में बड़ा अन्तर है। जो भारतवर्ष हजार साल से विदेशीय विजेताओं के पांवों में लोट रहा है, क्या उसकी प्रजा की सत्यप्रियता विजेता इंगलेण्ड के लोगों की सत्यप्रियता का मुकाबिला कर सकती है। यह देश भी यदि विलायत की भांति स्वाधीन होता और यहां के लोग ही यहां के राजा होते तब यदि अपने देश के लोगों को यहां के लोगों से अधिक सच्चा साबित कर सकते तो आपकी अवश्य कुछ बहादुरी होती। स्मरण करिये, उन दिनों को कि जब अंग्रेजों के देश पर विदेशियों का अधिकार था। उस समय आपके स्वदेशियों की नैतिक दशा कैसी थी, उसका विचार तो कीजिये। यह वह देश है कि हजार साल पराये पांव के नीचे रहकर भी एकदम सत्यता से च्युत नहीं हुआ है। यदि आपका युरोप या इंगलेण्ड दस साल भी पराधीन हो जाते तो आपको मालूम पड़े कि श्रीमान् के स्वदेशीय कैसे सत्यवादी और नीति-परायण हैं।

जो देश कर्मवादी है, वह क्या कभी असत्यवादी हो सकता है? आपके स्वदेशीय यहां बड़ी-बड़ी इमारतों में रहते हैं, जैसी रुचि हो, वैसे पदार्थ भोग सकते हैं। भारत आपके लिये भोग्यभूमि है। किन्तु इस देश के लाखों आदमी, इसी देश में पैदा होकर आवारा कुत्तों की भांति भटक-भटककर मरते हैं। उनको दो हाथ भूमि बैठने को नहीं, पेट भरकर खाने को नहीं, मैले चिथड़े पहनकर उमरें बिता देते हैं और एक दिन कहीं पड़कर चुप-चाप प्राण दे देते हैं। हाल की इस सर्दी में कितनों ही के प्राण जहां-तहां निकल गये। इस प्रकार क्लेश पाकर मरने पर भी क्या कभी वह लोग यह करते हैं कि पापी राजा है, इससे हमारी यह दुगाति है? माई लार्ड! वह कर्मवादी हैं, वह यही समझते हैं कि किसी का कुछ दोष नहीं है – सब हमारे पूर्व कर्मो का दोष है। हाय। हाय। ऐसी प्रजा को आप धूर्त कहे हैं।

कभी इस देश में आकर आपने गरीबों की ओर ध्यान न दिया। कभी यहां की दीन भूखी प्रजा की दशा का विचार न किया। कभी दस मीठे शब्द सुनाकर यहां के लोगों को उत्साहित नहीं किया – फिर विचारिये तो गालियां यहां के लोगों को आपने किस कृपा के बदले में दीं? पराधीनता की सबके जी में बड़ी भारी चोट होती है। पर महारानी विक्टोरिया के सदय बरताव ने यहां के लोगों के जी से वह दुःख भुला दिया था। इस देश के लोग सदा उनको माता तुल्य समझते रहे, अब उनके पुत्र महाराज एडवर्ड पर भी इस देश के लोगों की वैसी ही भक्ति है। किन्तु आप उन्हीं सम्राट् एडवर्ड के प्रतिनिधि होकर इस देश की प्रजा के अत्यन्त अप्रिय बने हैं। यह इस देश के बड़े ही दुर्भाग्यकी बात है। माई माई लार्ड! इस देश की प्रजा को आप नहीं चाहते और वह प्रजा आपको नहीं चाहती, फिर भी आप इस देश के शासक हैं और एक बार नहीं, दूसरी बार शासक हुए हैं, यही विचार विचारकर इस अधबूढ़े भंगड़ ब्राह्मण का नशा किरकिरा हो जाता है।

बालमुकुंद गुप्त
बालमुकुंद गुप्त (१४ नवंबर १८६५ - १८ सितंबर १९०७) का जन्म गुड़ियानी गाँव, जिला रिवाड़ी, हरियाणा में हुआ। उन्होने हिन्दी के निबंधकार और संपादक के रूप हिन्दी जगत की सेवा की।