‘Asli Baat’, a story by Nasira Sharma
शहर में फ़साद हुए आज पहला ही दिन था। हिंदू-मुसलमान मोहल्लों के बीच तमतमाती हवा बह रही थी। प्रशासन ने मौक़े की नज़ाकत देख कड़े पहरे और बंदूक़ के ज़ोर पर उनके जोश पर रोक ज़रूर लगा दी थी, मगर अंदर खदबदाते लावे को शांत नहीं कर पाए थे। ख़ाली सड़क और गली में पुलिस की गश्त के बावजूद गुनजान घरों की छतों से कभी-कभार सनसनाती बोतलों और अद्धों का आदान-प्रदान जारी था, जिसका पता लगाना पुलिस के लिए मुश्किल था कि किस घर से हमला किस घर पर हुआ है। सो गोलियों की बौछार और हवाई फ़ायर के दबदबे ने या फिर कबाड़ा ख़त्म हो जाने के कारण दोनों मोहल्लों में रात के आख़िरी पहर के लगभग ख़ामोशी छा गई।
सिपाही रामदीन की ड्यूटी बताशे वाली गली में लगी थी। आज दंगे का दूसरा दिन था। पूरा शहर होशियार की मुद्रा में खड़ा था। नये एस.पी. ने कड़े आदेश देते हुए पुलिसकर्मियों से साफ़ शब्दों में कहा था कि तुम्हारी ड्यूटी है कि कोई घटना न घटे, वरना सबको लाइन हाज़िर करवा दूँगा और जो कोई संदेहात्मक स्थिति में दिखे, उसे गोली मार दो। इस आदेश के बाद सिपाही रामदीन घरों के अंदर की भी सुनगुन लेने की कोशिश करता सुबह से गली के कई चक्कर लगा चुका था। अब सुस्ताने के लिए वह लैंपपोस्ट से टिककर खड़ा हुआ और मुँह में बीड़ी लगा लम्बे-लम्बे कश लिए।
“भैया जी! बच्चा गरमी से हलकान हो रहा है – ज़रा खुली हवा में टहला देते।”
दरवाज़े की ओर से जनाना आवाज़ सुन सिपाही रामदीन चौंक पड़ा। बीड़ी फेंक आगे बढ़ा। उसने बंद दरवाज़ों और खिड़कियों को घूरा और मन ही मन झल्लाया। खुले दरवाजे़ से दो हाथ एक बच्चे को बढ़ाते दिखे। काले-कलूटे, नंग-धड़ंग रोते बच्चे को आगे बढ़कर रामदीन ने सम्भाला और चुटकी बजा उसे बहलाने लगा।
“यह चकल्लस कब से लगाए हो?” दूसरी गली का कांस्टेबिल मोड़ पर खड़ा हो मुस्कराया, जिसका कोई जवाब रामदीन ने नहीं दिया। बच्चे का सारा बदन घमौरियों से भरा था जिनकी चुनचुनाहट से बेहाल वह मुँह फाड़े आलाप लगाता रहा। रामदीन ने सीटी बजायी और हाथ का डण्डा ‘खट-खट’ ज़मीन पर मारता आगे बढ़ने लगा। मकान की दोतरफ़ा क़तारों के बीच फँसी गली तंग थी, मगर गरमी के बावजूद वहाँ हवा का गुज़र था। थोड़ी देर बाद लड़का शांत हो गया और सिपाही की सीटी से खेलता उसके कंधे पर सिर रख सो गया।
“यह साला भी मामा की गोद समझ ठाठ से सो रहा है। इससे पहले कि वर्दी ख़राब करे, इसको इसकी माँ को वापस कर देना चाहिए।” रामदीन ने प्यार से काले-कलूटे लड़के का मुँह ताका और दरवाज़े पर पहुँच डण्डा बजाया।
“कब तक कर्फ़्यू खुलेगा, भैया जी?” औरत ने दरवाज़े की चौखट से हाथ बढ़ा बच्चे को उठाया।
“लड़ते वक़्त तो तुम लोग सोचते नहीं हो, अब हम का बताएँ!” रामदीन का खीझा स्वर उभरा।
“अब जहाँ चार बरतन साथ होंगे तो वहाँ टकराहट तो होगी न, भैया जी!” औरत का मद्धिम स्वर गूँजा।
रामदीन सिपाही का आज तीसरा दिन था। उसे लगने लगा था कि तनाव लगभग अपनी मौत मर चुका है, मगर दरवाज़े-खिड़कियाँ पुलिस के डर से इस गरमी में भी किसी ने खोले नहीं हैं। कल शाम को कोने वाले घर से ज़ोर की रुलाई फूटी थी। बहुत पूछने पर भी जब अंदर ख़ामोशी छायी रही तो रामदीन हनुमानगढ़ी की तरफ़ तैनात दो सिपाहियों को सीटी बजा बुलाने पर मजबूर हो गया। तीनों के दरवाज़ा तोड़ने की धमकी पर अंदर से आवाज़ आयी कि, ‘दादी गुज़र गई हैं।’
“तो इसमें छुपाने की कौन-सी बात है?”
थाना इत्तला भेजी गई। ख़ुद सुखबीर और परशुराम हवलदार ने बाहर से सांत्वना दी तो भी दरवाज़ा नहीं खुला। कर्फ़्यू हटने के समय कफ़न-दफ़न जो भी घण्टे-भर में कर सकते थे, उसे अंज़ाम दे वे फिर दरवाज़ा बंद कर बैठ गए। रामदीन के नरम व्यवहार ने दिलों से डर कम नहीं किया और न किसी ने उसकी तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ा चाय-पानी को ही पूछा। ‘उसका तो कर्तव्य है’, यह सोचकर रामदीन ने कंधे उचकाए। आख़िर आदमी ही तो समय पड़ने पर आदमी के काम आता है। अब यह विधवा तंबोलन है, दो माह पहले पति ट्रक से दब मर गया, अकेली है। मदद माँगती है सो कर देता हूँ। मगर बाक़ी लोग पुलिस की गोली से इस तरह भयभीत हैं जैसे पहले कभी दंगा-फ़साद किया न हो।
रामदीन को चार दिन पहले की घटना याद आयी। जहाँ दोनों मोहल्लों की गलियाँ एक-दूसरे को काटती सड़क पर मिलती हैं, वहाँ एक बूढ़ी मस्जिद है। उसी से मिला हुआ प्याऊ है जो सूख गया है, मगर बैठकबाज़ी ख़त्म नहीं हुई है। वहीं पर हनुमानगढ़ी है, जहाँ पर आना-जाना लगा रहता है। पीपल के पेड़ पर हनुमान जी का पुराना मंदिर है। अकसर छोटी-मोटी वारदातें उसी दोराहे से उठकर आसपास तनाव पैदा करती हैं। उस दिन भी वही हुआ। लाइट दो-तीन घण्टे से थी नहीं, गली अँधेरे में डूबी थी। एकाएक चीख़-पुकार से वहाँ खड़ा परेशान सिपाही समझ नहीं पाया कि शांत माहौल में ऐसा क्या हुआ जो लोग रोने-चिल्लाने लगे हैं। ख़बर मिलते ही थाने से टॉर्च ले चार-पाँच हवलदार दोराहे पर पहुँच गए। पूछने पर कि आख़िर हुआ क्या, जितने मुँह उतनी कहानियाँ। भीड़ अँधेरे में जमा भी हुई और छँट भी गई। जो लोग पुलिस के हत्थे चढ़े, उनसे कोई बात वे उगलवा न सके। तंग आकर प्रभारी ने बताशे वाली गली और हनुमानगढ़ी में कर्फ़्यू लगवा दिया और हिदायत दी, ‘कड़ा पहरा और सख़्त बरताव शहर के उन सभी संवेदनशील इलाक़ों में बरता जाए, ताकि बदमाश अपनी चौकड़ी भूल जाएँ।’
सब समझ चुके थे कि नया अफ़सर सख़्त है, किसी की सुनता नहीं है, जवान है और कानून का मतवाला है। मगर शहर के खाए-पिए अधेड़ बदमाशों के हाथ खिलौना लग गया था, उसे चिढ़ाने और तपाने में उन्हें मज़ा आने लगा था। जो समाज हरदम बारूद के ढेर पर बैठा हो वहाँ ऐसी दिल्लगी कितनी महँगी पड़ सकती है, इस बात की गम्भीरता समझना उनका काम नहीं था। अनुभवी दरोगा ताड़ गए थे कि इस हंगामे में भी उन्हीं की खुराफ़ात का हाथ है, तभी कुछ हाथ नहीं लगा। इस बात को वह अफ़सर से कह नहीं सकते थे, वरना उलटा उन्हें ही लताड़ पड़ती कि भारतीय पुलिस की हैसियत यह हो गई है कि गुण्डे-बदमाश उनसे मसखरी करें!
नवरात्र शुरू होने वाला था। शहर में रौनक़ लगनी शुरू हो गई थी। लाउडस्पीकर से भजन, कीर्तन, ऐलान सुनकर हनुमानगढ़ी वाले जितना कुढ़ रहे थे, उनसे ज़्यादा बताशे वाली गली के हलवाई, माली और उनसे अधिक झुग्गी-झोंपड़ी वाले ख़ुश, जो इस आशा में साल-भर रहते हैं कि शक्तिपीठ में नवरात्र शुरू होने के साथ भण्डारा खुल जाएगा और उन्हें भरपेट स्वादिष्ट खाना खाने को मिलेगा, जिससे वे चार पैसे बचा पाएँगे। मगर बैठे-ठाले यह कर्फ़्यू की मुसीबत तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है।
पुलिसवालों को अंदाज़ा हो गया था कि तनाव दम तोड़ गया है, मगर अफ़सर तो सबकी कमर की हड्डी तोड़ने का प्रण ले चुका था, दोनों मोहल्लों के ग़रीबों ने पछताना शुरू कर दिया था। सुस्ती अब उदासी में बदल गई थी। मज़दूर ने मज़दूरी से हाथ धोए, दुकानदारों ने ग्राहकों से। चूल्हे तो घर-घर दूसरे दिन से ही ठण्डे पड़ने लगे थे। कर्फ़्यू खुलता भी घण्टे-भर को तो ख़रीदारी की सकत किसमें थी? बताशों के बिना हनुमान जी का मंदिर सूना पड़ा था। चींटे-चींटियाँ अलबत्ता बताशों का चूरा ढो-ढोकर बिल भर रहे थे। आख़िर कुछ दुकानदारों ने सलाह-मशविरा कर एस.पी. को मनाने की बात सोची और कर्फ़्यू खुलते ही सीधे थाने पहुँचे तथा विपदा कह सुनायी।
“घर-घर फाका है, न काम है, न रोटी, न ख़रीदार, न मुनाफ़ा। ऐसी स्थिति में अब हमारी ग़लती माफ़ करें। सजा बहुत हो गई, महाराज!”
“वह सब ठीक है, मगर इस बार कर्फ़्यू तभी हटेगा जब आपस में लड़ना छोड़ोगे।”
“यह तो बड़ी मुश्किल शर्त है। हम तो ठहरे अहिंसा के पुजारी, मगर उधर वालों से राम बचाए।” छक्कू स्टोर वाले ने कान को हाथ लगाया।
“बहुत सीधे हो, लाला, तुम! बात-बात पर धमकी कौन देता है!” मुन्ना बढ़ई बिगड़ गया।
“देखा, बिना किसी कारण मेरे सामने भी शुरू हो गए! भागो यहाँ से, वरना सबको दंगा फैलाने के जुर्म में लॉकर में बंद करा दूँगा। रामसिंह! आज से कर्फ़्यू एक घण्टे की जगह सिर्फ़ आधा घण्टा खुलेगा। अभी इनका दिमाग़ ठण्डा नहीं हुआ है।”
यह ख़बर छोड़े हुए तीर की तरह दोनों मोहल्लों में जाकर लोगों के दिल व दिमाग़ में बिंध गई। लपकते-दौड़ते झुण्ड के झुण्ड लोग सिरफिरे प्रभारी के पास पहुँचे और मिन्नतें करने लगे। प्रभारी पांडेय ने मिलने से इनकार कर दिया। थाना बाहर से घिरने लगा था। उसने ऊपर छत से ऐलान कर दिया कि जो चाहे आप लोग करें, प्रभारी बात नहीं सुनेंगे, क्योंकि उनका विचार है कि आप सब यहाँ आपस में अपने-अपने को गामा और रुस्तम पहलवान समझकर कुश्ती लड़ लें। सुनकर लोग मन ही मन पछता उठे कि आख़िर किसलिए उन्हें यह दिन देखना पड़ रहा है? घरों में रोटी नहीं, काम पर कोई गया नहीं। बताशा उधर वालों ने बनाया नहीं, इधर वालों ने उसे शहर ले जाकर बेचा नहीं। इस परेशानी में ‘सुलेमान भाई’ और ‘राजू भैया’ कहकर सब एक-दूसरे को सफ़ाई देने लगे कि भला हमने कभी दुश्मनी निभायी आपस में? पता नहीं कौन है जो यह सब करता है और गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है। आधे घण्टे की नाक रगड़वाई के बाद एस.पी. को यक़ीन हो गया कि अब लोहा गरम है और सबने ‘किसी और’ को अपने अंदर से पकड़ लिया है। कल पहचान भी लेंगे। प्रभारी द्वारा ऐलान करवाया गया कि इस शर्त पर कर्फ़्यू अभी इसी समय हटाया जा रहा है कि अब कोई दंगा-फ़साद नहीं होगा, वरना –
“नहीं होगा, नहीं होगा।” ऐलान के बीच ही लोग चीख़ने लगे और उसी जोश में बाक़ी बात सुने बिना घरों को लौटने लगे।
कल शाम से तंबोलन के लड़के को बुख़ार हो गया था। अब कर्फ़्यू हटा तो जेब में फूटी कौड़ी नहीं, फिर डॉक्टर या अस्पताल जाए कैसे? कुछ सोचकर सूफ़ी बाबा की दरगाह की तरफ़ चल पड़ी कि वहाँ के मुजाविर से विनती कर फुँकवा लेगी। दवा न सही, दुआ तो असर कर सकती है। तौलिये में लपेट बेटे को लेकर जब दरगाह पहुँची तो शाम ढल गई थी। भीड़ आज गजब की थी। किसी तरह बच्चे को बचाती अंदर दाख़िल हुई। चबूतरे के सामने बच्चे को लिटाकर माथा टेका और बेक़रार नज़रों से बड़े मुजाविर को ढूँढा। नमाज़ ख़त्म हो गई थी। हारमोनियम उठाकर कव्वाल अपनी जगह ले चुके थे। धीरे-धीरे करके मजमा बढ़ने लगा और कव्वाली शुरू हो गई। एक-दो रुपए की भेंट हारमोनियम के सामने रख लोग झूमने लगे। वातावरण में एक शांति की छटा-सी फैलने लगी। उसी बीच उसने देखा कि मुजाविर साहब अंदर से आ रहे हैं। वह लपकी, साथ ही एक गेरुए कपड़े वाला संन्यासी भी उठा।
“लो,सम्भालो।” मुजाविर ने आठ-दस बण्डल अगरबत्ती के उस आदमी को थमाए।
“यह रखो! कल से शुरू करवा देना। अब मैं चलता हूँ।” रुपए मुजाविर के सामने रख, अगरबत्ती झोले में डाल गेरुए कपड़े वाला मुड़ा और शीश नवा बाहर की तरफ़ चला गया।
“भूख से अधमरा मेरा बेटा कल से बीमार है, मुजाविर साहब!” जवान तंबोलन देखते-देखते बूढ़ी लगने लगी।
“घबराने की बात नहीं।” मुजाविर ने बच्चे के सिर पर हाथ फेरा और सीने पर कुछ पढ़कर फूँका। फिर पास पड़े इलायचीदानों के पैकेटों के ढेर से एक उठा तंबोलन को दिया।
तंबोलन बच्चे को उठा दूसरी तरफ़ सरक गई और बेचैन हो उसने पैकेट को खोला और एक दाना बेटे के मुँह में डाला, जिसे वह फौरन चूसने लगा – और ख़ुद अपने मुँह में पाँच-छह दाने डाले। दो दिन बाद ज़बान को खाने का स्वाद मिला था, जिसने भूख पर लगा प्रतिबंध तोड़ दिया था। तंबोलन का भूख के मारे बुरा हाल हो गया। उसी के साथ उसे चक्कर महसूस हुआ कि कल दुकान खोलने के लिए कत्था, चूना, सुपारी, पान कहाँ से लाएगी? इस हालत में किसी से कुछ माँगना भी मुश्किल है। सभी की जेबें ख़ाली हैं। उसने शुक्रिया-भरी नज़रों से मुजाविर को ताका और इलायचीदाने की फाँकी मुँह में डालने वाली थी कि उसका हाथ मुजाविर के चेहरे पर दौड़ते ग़ुस्से को देख बीच में ही रुक गया, जो सामने बैठे दो-तीन लोगों को दबी ज़बान से फटकार रहे थे।
“हाँ-हाँ, यहाँ टीले वाले मंदिर के महंत आए थे। मज़ार से छुली अगरबत्तियों का पैकेट ले गए हैं और नवरात्र के नौ दिन तक मज़ार पर कुरानख्वानी करवाने के लिए ये पैसे भी दे गए हैं – फिर? यह उनका एतकाद है। बचपन से वह आते रहे हैं। यह रिश्ता तब से बना है जब तुम लोग पैदा भी नहीं हुए थे। उनकी ख़्वाहिश रहती है कि सूफ़ी बाबा के मज़ार की तरह उनके मंदिर से कोई ग़रीब निराश न लौटे तो इसमें तुम्हारी दख़लअंदाज़ी का क्या मतलब है? पीर-औलिया इनसानों में फ़र्क़ नहीं करते। यह दर सबके लिए खुला है – अमीर-ग़रीब, हिंदू-मुसलमान, छोटा-बड़ा। ख़बरदार, जो फिर कभी अपनी जाहिलाना राय मुझे देने यहाँ आए!”
आसपास के लोगों के कान खड़े हो गए। तीन-चार मर्द बड़ी शालीनता से उनको जाने का इशारा कर तब तक खड़े रहे जब तक वे दोनों हाथ जोड़, सिर झुका बाहर की तरफ़ नहीं बढ़े।
कुछ देर बाद बड़ी पतीली और रोटी उठाए कुछ औरत-मर्द दाख़िल हुए, जिनको देख दीवार से लगे मर्द-औरत अपना कटोरा ले आगे बढ़ने लगे। उनकी मुराद पूरी हुई थी। तंबोलन भी प्रसाद के इंतजार में आगे की तरफ़ खिसकी, मगर अफ़सोस, जब तक उसकी बारी आयी तब तक रोटियाँ और शोरबा ख़त्म हो गया था। वह निराश-सी उठी और बेटे को उठाकर बाहर सड़क पर आ गई, जहाँ फ़क़ीरों की भीड़ होटलों के सामने बैठी थी। भूख से बेताब होकर उसके क़दम मुड़े, मगर फिर वह ठिठककर खड़ी हो गई कि वह तंबोलन है, फ़क़ीरन नहीं। कल तक भूखी रह सकती है।
दूसरे दिन बेटे का बुख़ार तो उतर गया था, मगर होंठों पर पपड़ी जम गई थी। पानी पिला-पिलाकर वह कब तक उसे ज़िंदा रख सकती थी। शाम ढले जब भीड़ को टीले की तरफ़ जाते देखा तो वह भी चल पड़ी। कुछ दूर चलकर फिर उसके क़दम रुकने लगे कि वह तो…. वहीं टीले के नीचे बैठ हसरत से भीड़ को ऊपर जाते और ख़ुश-ख़ुश लौटते देख वह अपने को रोक नहीं पायी। ऊपर पहुँच उसने देखा कि वही संन्यासी सबके पत्तलों में खाना डालता आगे बढ़ रहा है। उसके आठ-दस साथी सबकी आवभगत में लगे हैं। गंदे, चिथड़े वाले कपड़े पहने बूढ़े, बच्चे, मर्द, औरत खाना खा रहे हैं। उसकी आँखें भीगने लगीं। वह मुड़ी और टीले से उतरने को हुई कि तभी पीछे से आवाज़ आयी, “माँ, भण्डारे की रोटी तो चखती जाओ – आओ, इधर आओ – यह तो तुम्हारा अधिकार है।”
तंबोलन ने घबराकर पीछे देखा। आग्रह में इतना प्यार था कि वह उधर ही बढ़ गई। पत्तल पर एक साथ कई व्यंजन देख उसे अजीब लगा। पेट भरकर जब वह उठी तो उसे अपने स्तन बहुत भारी लगे। हाथ धो वह कुछ दूर पेड़ के नीचे बैठ बेटे को दूध पिलाने लगी। एक असीम सुख में डूबते हुए उसने सोचा, ‘रोटी में कितनी ताक़त है! जब चाहती है, बाँट देती है और जब चाहती है, एक कर देती है।’
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