तुम्हारी जीत भरी मुस्कराहट को
देख कर हमेशा ऐसा लगता है
जैसे कितनी मुश्किलें
अपनी सैंडल से मसल कर
कभी धीरे तो कभी तेज़ चलकर कितनी
गिरहें तोड़ती आयी हो।

हाथ कमर पे
होठों पे हँसी
झंझावातों का
शो बिज़
करती आई हो।

“आई एम हियर टू स्टे!”
आईने को बोला कितनी बार।
आँखों की कोर
को ज़िद बना कर
हँस के पोछा कई बार।

बोलती कुछ नहीं आँखे
ज़िद्दी बहुत हैं तुम्हारी
सुनाने कुछ नहीं देता
स्वाभिमान भी तुम्हारा।

कितनी सादा हो
कितनी खूबसूरत
तुम्हारे माथे पर
जो बल पड़ा है
सोचता-सा मन
तुम्हारा सिंचित प्रेम हैं सब।

अपने अनवरत होने को
अपनी निरन्तरता
में सोचती नहीं होगी तुम
बस करती रहती हो
सारे ज़रूरी काम
खुद को भूल के हरदम।

* * *

अस्मिता – [सं-स्त्री.] –
1. अपने होने का भाव;
2. हस्ती; अपनी सत्ता की पहचान
(पहली बार अज्ञेय द्वारा ‘आइडेंटिटी’ के लिए शब्द ‘अस्मिता’ प्रयुक्त)
3. अस्तित्व; विद्यमानता; मौजूदगी

प्रज्ञा मिश्रा
प्रज्ञा मिश्रा सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़ी एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्यरत हैं। उनका हिन्दी के प्रति प्रेम उन्हें बिहार की मिट्टी और अपने घर के हिन्दीमय वातावरण से मिला, और इसके लिए प्रज्ञा अपने आपको धन्य मानती हैं। हिन्दी के प्रति समर्पित होने के पहले चरण में प्रज्ञा आजकल इग्नू से हिन्दी में एम. ए. कर रही हैं।