एक दिन,
जब हवाएँ तेरे बनारसी दुप्पटे से खेल रही होंगी
जब चाँद पानी में उतर चुका होगा
जब तुम ख़ामोशी से उकेर रही होंगी,
रेत में मोहब्बत के अल्फ़ाज़
उस दिन मैं तुमसे मिलूँगा।
सौंप दूँगा
वो सारे ख़त
जो मैंने रात की ख़ामोशी में
सिर्फ़ तुम्हारी पाजेब की धुन में लिखे हैं।
वो सारी नज़्में
जिनमें तुम्हारी गर्दन के
काले तिल को नाज़ हैं।
वो सारी ग़ज़लें
जिनमें तुम्हारे सफेद चंदन से बदन का
थोड़ा सा भी ज़िक्र हैं।
वो सारे गीत
जो मैंने मोहब्बत के दिनों में
महफ़िलो में गुनगुनाये है।
हाँ… मेरे लिए ये मुश्किल होगा
पर आँसुओं को छुपा कर तुम्हारे लिए करूँगा।
और…
उस दिन मैं अंतिम बार
अपनी मोहब्बत के अल्फ़ाज़ों का पूरा अर्थ पाऊँगा।
उस दिन अंतिम बार
पानी में उतर चुके चाँद को
घसीटकर रेत में रख दूँगा।
उस दिन अंतिम बार
तुम्हारे पैरों के निशाँ के बग़ल में
मेरे पैरों के निशाँ होंगे।
उस शाम की ख़ामोशी
सिर्फ़ मैं सुन सकूँगा,
तुम भी नहीं सुन पाओगी
और उसके बाद
कभी चाँद आसमाँ से
जुदा नहीं होगा।
मेरा इश्क़ जो तेरे दरम्यां तक है
उसका अस्तित्व मिटेगा।
उसके बाद कोई इश्क़ रुसवा नहीं होगा
और शायद…
मेरे फ़ना होने के बाद
कोई फ़ना नहीं होगा।
* * *
अशोक सिंह ‘अश्क़’
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी